Thursday 28 December 2017

राजनेता व घोटाले एक दूसरो का संबंध

राजनेताओं को देश के अंदर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी दी गयी है जिससे कि हर राजनेता देश के लिए अच्छा करेगा, देश का हर नागरिक यही सोचता है कि ये राजनेता समाज के साथ-साथ देश का भी विकास करेंगे। भारत का नाम विश्व के मानचित्र पर दमदार तरीके से रखेंगें ,लेकिन दो-तीन दशकों से देश में लूटतंत्र का जाल इस कदर फैल गया कि देश का विकास आगे जाने के बजाय पीछे चल रहा है, कारण वही घोटालों का जांच करने में सिस्टम का व्यस्त रहना, जिस प्रकार से देश के अंदर घोटालों का दौर शुरू हुआ इसमें हमारी जांच एजेंसियों सहित न्याय का मंदिर भी न्याय देने में जूझ रहा है। एक-एक घोटालों की जांच करता-करता आज न्यायालय पर भी काफी बोझ पड़ गया है। एक घोटाले की जांच पूरी हो नहीं पाती तब तक दूसरा खड़ा, तीसरा खड़ा और इस प्रकार बीसों की संख्या में मुकदमें पंजीकृत हो जाते है। देश के जिम्मेदार पद पर बैठे नेता रातों-रात धनी होने के चक्कर में इतना तगड़ा घोटाला करते है कि वह सुर्खियों में आ जाते है फिर उनके ऊपर केस दर्ज हो जाता है, यह केस न्याय की धीमी रफ्तार के कारण एक से दो दशक या इससे भी ज्यादा समय में फैसला दे पाते है वह भी कोई जरूरी नहीं है कि दोषी को अपराधी घोषित किया ही जाय वह बा-इज्जत बरी भी हो सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि वह कि जितने का घोटाला नहीं उससे ज्यादा खर्च इस न्याय प्रक्रिया के संचालन पर खर्च हो जाते है,ऊपर से समय का नुकसान। अगर बड़े तबके के राजनेतायो को आखिरकार छूट मिल ही जाती है, क्योकिं न्याय में भी उनकी पहुँच ऊपर तक होती है।ये राजनेता जितना घोटाला करते है अगर ये पंडित लाल बहादुर शास्त्री से सीखते तो काश!आज भारत की आर्थिक विकास दर कुछ और ही कहती, लेकिन ये लोग देश के बारे में कम सोचते है जबकि अपने बारे में ज्यादा। यही कारण है कि देश की अदालतें फैसला कम तारीख ही ज्यादा देती है और हमारा सिस्टम तारीख़ पर तारीख़ ही लेकर खुश रहता है।आज देश के अंदर देखा जाय तो इतने घोटाले हो चुके है कि इनको अंगुली पर गिनना ही बहुत मुश्किल है, फिर भी इतने घोटालों के बाद भी देश चल रहा है और यहां की जनता इन नेतायों को झेल रही है जबकि ऐसे नेतायों को राजनीति में नही रहने देना चाहिए जो देश की कमर तोड़ने में लगे पड़े है।।

Sunday 24 December 2017

भ्रष्टाचार मिटाने की दिशा में, एवं स्वच्छ भारत की दिशा इन्हे क्यू समझ मे नहीं आती

 गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा सदस्यों के चुनाव परिणाम बीजेपी के पक्ष मे आये हैं और जनमत स्वयं ही उठते हुए प्रश्नों का उत्तर देता प्रतीत हुआ है, फिर भी इस दौरान चर्चा में आए कुछ वक्तव्य अनायास ध्यान आकृष्ट करते हैं। अभी कांग्रेस के नव निर्वाचित अध्यक्ष राहुल गाँधी ने यह कहकर सोचने को विवश कर दिया कि वर्तमान केन्द्रीय पार्टी बी.जे.पी देश को पीछे ले जा रही है।
मन में एक प्रश्न उठता है कि कहीं यह सच तो नहीं। बीजेपी के केन्द्रीय सत्ता में आते ही जिस प्रकार हिन्दुत्व को मुख्य मुद्दा बनाकर हिन्दू संगठनों ने गो रक्षा, बीफ निषेध आदि कार्यक्रमों को हिंसक तौर पर अंजाम देना आरंभ किया, उसने एक बार तो देश को झकझोर दिया। पूरे बौद्धिक समाज को नागवार प्रतीत हुआ। घोर प्रतिक्रियाएँ हुईं, विशेषकर उस जनसंख्या के द्वारा, जो खाने पीने में में किसी प्रकार के वाह्य बंधन को स्वीकार करना नहीं चाहती।

ग्रामीण परिवेश को छोड़ दें तो भी किसी भी श्रेणी के नगरों में रहने वाले प्रगतिशील नागरिक जो मिश्रित संस्कृति को प्रश्रय दे रहे हैं, इस बंधन को स्वीकार करने से कतरा रहे और तत्सम्बन्धित स्वतंत्रता के पक्षपाती हैं, उनमें अधिकांश परिवार के सदस्य विदेशों में भी रहते हैं। विदेशी सभ्यता मे घुलमिल गये हैं। वहाँ के रहन सहन को अपनाकर अपने को भारतीय मानते हैं, हिन्दू की वृहत परिभाषा के अन्तर्गत स्वयं को हिन्दू मानते हैं। इसके लिए उन्हें किसी जनेऊ के सर्टीफिकेशन की आवश्यकता नहीं पड़ती।

उनकी इच्छा पर ही बीफ खाना या नहीं खाना निर्भर करता है। वे वहाँ भी अपनी सामाजिक विचारधाराओं का पोषण करते हैं। उनके खान पान सम्बन्धी विचार भी यहाँ आयातित होते रहते हैं। परिणामतः तत्सम्बन्धित बन्दिशों को वे स्वीकार करना नहीं चाहते और किसी भी स्थिति मे गोबर खाकर शुद्धि की आवश्यकता उन्हें नहीं पड़ती। ये भारतीय विवश उदारता के शिकार हैं, जिसकी आज के उस समाज में परम आवश्यकता है।

यों भी इस देश की धर्म निरपेक्ष लोकतंत्रीय व्यवस्था के कारण हम किसी के खान पान पर बंदिशें नहीं लगा सकते। सुदूर उत्तर पूर्वी राज्यों से लेकर दक्षिण और पूर्वी से लेकर पश्चिमी राज्यों तक में खान पान की इतनी निज की  विविधताएँ हैं। हम उनमें से किसी के प्रयोग में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। गौ के प्रति हिन्दुओं के पूज्यभाव के परिणामस्वरूप अचानक बीफ के प्रयोग के प्रति आक्रोश जनित हलचल ने बीजेपी को आलोचना का केन्द्र बना दिया। साथ ही गोरक्षा से सम्बन्धित कानूनों ने खरीदने बेचने पर रोक लगाकर अचानक ही बीजेपी ने अपनी तस्वीर विवादास्पद बना ली। हालांकि जनविरोधों को देखते हुए और उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेपों से उन्होंने ऐसे कानूनों को वापस लिया।

अयोध्या में सामाजिक समरसता को चोट तो उन लोगों के माध्यम से लगती है जो अभी भी वहाँ राम मन्दिर का विरोध करते नजर आते हैं। एक भारतीय होने के नाते राम और कृष्ण की संस्कृति को अगर हर व्यक्ति अपने धर्म से जोड़े बिना ही सामाजिक आदर्श रूप में स्वीकार करे तो क्या हानि है? वे सामाजिक आदर्श हैं, किसी के देवता हों या न हों। इन आदर्शों पर भारतीय समाज स्थापित है और विश्व में विशेष आदर का पात्र भी। इन आदर्शों में जो स्थायित्व है, सार्वदेशिक सार्वकालिक सत्य है वह सबके लिए अनुकरणीय हो ही सकता है।

मूल बात से न भटकते हुए हम यह कहना चाहूँगा कि यद्यपि बीजेपी समाज की पिछली  सामाजिक व्यवस्था और चिंतन की ओर मुड़मुड़ कर देखती है, उसे अपनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहती है पर आधुनिक स्थितियों में संभल भी जाती है। यह उसकी कमजोरी नहीं बहुत बड़ी विशेषता है और जहाँ तक देश को आधुनिकतम विकास की ओर ले जाने की बात है, वह पीछे नहीं हट रही है। गुजरातमें अपने प्रचार के दौरान जल और नभ में चलने वाले समुद्री वायुयान सीप्लेन से सफर कर एक उदाहरण प्रस्तुत किया। बुलेट ट्रेन की बुनियाद रखी।

भ्रष्टाचार मिटाने की दिशा में, एवं स्वच्छ भारत की दिशा और जीएसटी जैसे दूरगामी परिणामों वाले कार्यक्रमों में इमानदारी से किए गए प्रयत्न और हर क्षेत्र में आधुनिकता का समावेश करने की कोशिश तो की ही गयी है। भूलों को मानते हुए सुधार भी किए। ऐसी स्थिति में चंद सहायक पार्टियों के द्वारा किए गए गैर संवैधानिक, गैर जिम्मेदाराना ढंग से कानून उल्लंघन के प्रयासों से उसके अस्तित्व का आकलन नहीं करना चाहिए। उन पर रोक लगाने की दिशा में प्रयत्नशील होना चाहिए। आखिर विपक्षी दलों की अनिवार्य भूमिका की ऐसे समयों में ही परख होती है। उनकी राजनीति नकारात्मक नहीं सकारात्मक  होनी चाहिए और अगर हम अपनी विशिष्ट संस्कृति की रक्षा करते हुए आगे बढ़ते जाएँ तो कोई हानि नहीं है।

धुर विरोधी प्रवृतियों के कारण ही काँग्रेस आज बहुसंख्यक समाज में अपनी पैठ खो रही है। राजनीति की तुष्टीकरण की नीति आखिर कब तक कारगर हो सकती है। उसने हिन्दुओं को आतंकवादी का दर्जा दे दिया और आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले देश के साथ गुपचुप साँठगाँठ में प्रवृत्त हुई। यह सब प्रमाणित हो या नहीं पर भारतीय जनता अब उस दल के द्वारा स्वतंत्रता पश्चात के सारे हथकंडों को समझ चुकी है। मंदिर-मंदिर जाकर अब सिर झुकाने से पुरानी धारणाएँ मिटने वाली नहीं हैं। यह एक नाटकीयता है। कृत्रिमता का आभास हुआ। भारतीय संस्कृति की ओर मुड़ना प्रिय तो लगा, अगर यह आगे भी जारी हो तो इसके दूरगामी फल अवश्य होंगे। अध्यक्ष के रूप में राहुल गाँधी से ऐसी कुछ अपेक्षाएँ तो अवश्य हैं कि वे अपने दल की विचारधाराओं में  संशोधन के पक्षधर होंगे।

एक दूसरा वक्तव्य जो समाचारपत्रों से उभर कर सामने आया वह धर्मांतरण से सम्बद्ध है। वस्तुतः धर्मांतरण अगर बलात् करवाया जाए तो यह पूर्णतः गलत है। पर धर्म तो निजी विश्वास पर आधारित है। हम घर में राम कृष्ण की पूजा कर चर्च जाकर अनायास हृदय पर क्रास अंकित कर लेते हैं तो हमारा धर्म हमसे रुष्ट नहीं होता। अगर हम अपने धर्म को मानते हुए दूसरे धर्म को आदर दें, उसके संदेश को समझें तो गलत क्या है?

अपने धर्म को मानते हुए दूसरे से घृणा करना आवश्यक तो नहीं। घर वापसी अभियान अच्छा है। अगर बलात् दूसरे धर्म को मानकर कोई कष्ट पारहा हो तो अपने धर्म के दरवाजे उसके लिए खोल देना हमारे उदार दिल का परिचायक होगा। पर इस धर्मनिरपेक्ष देश में किसी क्रिश्चियन संस्थान में क्रिसमस पर्व को इसलिए मनाने से रोकने को कहना कि वहाँ अधिसंख्यक हिन्दू विद्यार्थी हैं और यह क्रिश्चियन धर्म में प्रवृत्त करने का उनका आरंभिक तरीका हो सकता है, गलत है।

मार-मारकर किसी को हकीम नहीं बनाया जा सकता। उसके लिए हकीमी इल्म की जानकारी और प्रवृति होनी चाहिए। अगर इन संस्थानों से ऐसा ही भय हो तो अन्य धर्म के लोगों को उसमें प्रवेश ही नहीं लेना चाहिए। लगाम मन की प्रवृतियों पर लगानी चाहिए। दूसरों पर लगाम लगाने की क्रिया अगर बी जे पी अथवा हिन्‍दू जन जागरण मंच द्वारा की जाती है तो उसपर लगाम लगाने की आवश्यकता है।

यह भय पालकर कि दूसरे अपने धर्म में उन्हें सम्मिलित कर लेंगे- नहीं जिया जा सकता। इसका स्पष्ट ही तात्पर्य है कि हमारे धर्म में कुछ कमियाँ हैं जिसको दूसरे धर्म अपनी विशेषताओं से दूर करते हैं। क्यों न ऐसी कमियों को हम दूर कर लें। हमें आत्मानुशीलन कर आत्म नियंत्रण की कला सीखनी होगी अन्यथा ऐसे व्यवहारों से लोकप्रियता घट सकती है।
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 
मो -84607 83401 

Monday 11 December 2017

गुजरात मोडल आपको केसा चाहिए क्या यह मोदी का गुजरात मोडल नहीं है ?

गुजरात विधानसभा  चुनाव का एक  चरण सम्पन्न हो चुका है  ! दूसरे चरण  मे चुनाव प्रचार  जोरो शोरों  से चल रहा है ! एक दूसरे  पर आरोप प्रत्यारोप लग रहे है  !कांग्रेस युवराज विकास  को पागल करार दे रहे है तो मोदी जी सीना ठोककर   अपने द्वारा  किए विकास कार्य ओर उपलब्धि  बता रहे है !  2014 के पूर्व से ही नरेंद्र मोदी जी  के गुजरात मॉडल की चर्चाएं काफी गर्म रहती थीं. जहां मोदी के समर्थक गुजरात मॉडल का हवाला देकर वहां भ्रष्टाचार रहित एवं विकास शील व्यवस्था का गुणगान करते थे, वहीं देश की विपक्षी पार्टियों के नेता मोदी के गुजरात मॉडल पर तंज़ करते नज़र आते थे. उत्तर प्रदेश के एक नेता ने तो यहां तक कह दिया था कि- “हम यू.पी को गुजरात नहीं बनने देंगे”. कमोबेश यही बात हर विपक्षी नेता की जुबान पर भले ही न आयी हो, लेकिन सबके मन में यही डर कहीं न कहीं बैठा हुआ था कि अगर “गुजरात मॉडल” चल पड़ा तो मोदी और देश की जनता के अच्छे दिन आ जाएंगे और उनके लिए सत्ता का स्वाद चखना अगले कई दशकों तक एक दिवा स्वप्न बनकर रह जाएगा.
आपको गुजरात मोडल  समझाने का प्रयास करता हु   कि आखिर यह “गुजरात मॉडल” है किस चिड़िया का नाम  तो आप मुझसे जरूर सहमत होंगे ----  
1.  गुजरात में होने वाला विधान सभा का चुनाव स्वतंत्र भारत का पहला ऐसा चुनाव है जिसमे कोई भी नेता गोल जालीदार टोपी पहने दिखाई नहीं दे रहा है. यही गुजरात मॉडल है.
2. भगवान श्री राम को “काल्पनिक” बताने वाले राहुल गाँधी पिछले दो महीने में 22 बार मंदिरों में जाकर अपनी नाक रगड़ चुके हैं. निश्चित रूप से यही गुजरात मॉडल है.
3. राहुल गाँधी, जिनका अभी तक यह मानना था कि मंदिरों में लोग लड़कियों को छेड़ने जाते हैं, वे खुद इतनी बार मंदिरों के चक्कर काट चुके हैं, जितने चक्कर किसी और कांग्रेसी नेता ने अपनी पूरी जिंदगी में नहीं लगाए होंगे. यह भी गुजरात मॉडल है.
4.  राहुल गाँधी मंदिर जा रहे हैं लेकिन किसी “सेक्युलर” नेता की इतनी हिम्मत नहीं पड़ रही कि पलटकर उनसे पूछे कि क्या अब मस्जिद भी जाओगे? यही गुजरात मॉडल है.
5.  नेहरू ने जिस सोमनाथ मंदिर का विरोध किया और उसके लिए धन देने से भी मना कर दिया, आज उसी मंदिर में जाकर उनके वंशज अपनी चुनावी जीत की भीख मांगने के लिए विवश हैं. यही गुजरात मॉडल है.
वैसे तो धीरे धीरे सभी नकली “सेक्युलर” नेताओं को पिछले तीन सालों में गुजरात मॉडल की पूरी खबर लग चुकी है. जिन्हे अभी तक गुजरात मॉडल की समझ नहीं हुई है, उन्हें भी 2019 के चुनावों से पहले यह गुजरात मॉडल पूरी तरह समझ में आ जाएगा. घोर जातिवाद और साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाली मायावती का उत्तर प्रदेश के हालिया निकाय चुनावों में इस्तेमाल किये गए एक चुनावी नारे की झलक मात्र से ही यह बात साफ़ हो जाएगी कि अब “गुजरात मॉडल” सभी को समझ आने लगा है. बहुजन समाज पार्टी का नारा था- “न ज़ात को न धर्म को- वोट मिलेगा कर्म को.” यानि जिनकी पार्टी की बुनियाद ही ज़ात-पात, तुष्टिकरण और साम्प्रदायिकता पर टिकी हो, अब उन्हें भी “कर्म” यानि गुजरात मॉडल का सहारा लेना पड़ रहा है.
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 
मो - 8460783401 

Thursday 7 December 2017

सुख की अनुभूति


जीता हुआ मन ही हमारा सच्चा मित्र मन किस प्रकार अपना ही मित्र एवं शत्रु हो सकता है, यह बात सहज ही एक शंका के रूप में हमारे सामने आती है। कहा गया है ......
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥ 

इसका शब्दार्थ देखें— जिस (येन) विवेकयुक्त बुद्धि द्वारा (आत्मना) मन ही (आत्मा एव) जीत लिया है- वशीभूत कर लिया गया है (जितः), मन (आत्मा)उसके (तस्य) जीवात्मा का (आत्मनः) मित्र है (बन्धुः, किंतु (तु) अवशीभूत व्यक्ति का (अनात्मनः) मन (आत्मा) शत्रु की तरह (शत्रुवत्) शत्रुता का आचरण करने में (शत्रुत्वे) प्रवृत्त हो जाता है (वर्तते)। अर्थात् जिसने अपने आत्मा द्वारा अपने मन एवं इन्द्रियों सहित शरीर को जीत लिया है, उसके लिए यह आत्मा मित्र है; किंतु जिसने अपने आत्मा को जीता नहीं है, उसका आत्मा ही उसका विरोधी हो जाता है और उसके प्रति बाह्य शत्रु की तरह व्यवहार करता है। जीव को वह हर प्रकार की हानि पहुँचाता है। ,
जिसने अपने अहंकार को जीत लिया, उसके लिए उसका बौद्धिक व्यक्तित्व मित्र है (बन्धुरात्मात्मनस्तस्य) और यदि हम किसी कारणवश अपने मन, इन्द्रियों, बुद्धि वाले पक्ष पर नियंत्रण नहीं कर पाए तो, यह अविजित बुद्धि ही हमारे विरुद्ध एक भयावह अजेय शत्रु की तरह काम करती है। यहाँ वह अवधारणा स्पष्ट हो जाती है कि मनुष्य का अपना आपा कब मित्र हो जाता है, कब शत्रु। जिसने अपने को जीत लिया, अपनी इंद्रियों पर अपना स्वयं का नियंत्रण स्थापित कर लिया, उसका मन उसका मित्र है। संसार की आसक्तियों से स्वयं को हटाते चलना एवं भगवान् में मन लगाते चलना,  परमात्मा में स्वयं को सम्यक् रूप में स्थित करना ही एकमात्र बंधनमुक्ति का उपाय है।
मित्र- शत्रु हमारे अपने ही अंदर हम स्वभाव से बहिर्मुखी हैं। अपने मित्र एवं शत्रु हम बाहर ही ढूँढ़ते रहते हैं। वस्तुतः बाहर—बहिरंग जगत् में न तो हमारा कोई मित्र है और न कोई शत्रु ही है। ये सभी हमारे भीतर अंतरंग में विद्यमान हैं। हमारा अपना अहं जो अनुशासनों के पालन की बात आने पर बाधक बनने लगता है तथा हमारे अपने बौद्धिक व्यक्तित्व- परिष्कृत आत्मतत्त्व के मार्गदर्शन में चलने से इनकार कर देता है तो यह हमारी अभीप्साओं का, आध्यात्मिक आकांक्षाओं का आंतरिक शत्रु बन जाता है। इसके विपरीत सोचें—हमारा अहंकेंद्रित व्यक्तित्व हमारे मन- मस्तिष्क के, हमारे हित के लिए निर्धारित निर्देशों और सहज प्रभुकृपावश मिले मार्गदर्शन का अनुकरण करने लगता है तो यह हमारे आध्यात्मिक विकास में सहायक, हमारी भरपूर सहायता करने वाला हमारा मित्र बन जाता है। इसीलिए आत्मनिरीक्षण- ध्यान द्वारा अपने चित्त- मन का पर्यवेक्षण—परिशोधन अत्यंत अनिवार्य है।
शांति को पाने का मार्ग जिसने अपने मन को जीत लिया है, वह किन्हीं भी परिस्थितियों का सामना कर सकता है। परिस्थितियाँ उसके लिए बाधित नहीं होतीं। उसका मनोबल इतना प्रचंड होता है कि वह फिर किसी भी परिस्थिति से अप्रभावित रह अपनी आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करता चलता है। उसकी आत्मा उसके वश में होती है। यही नहीं, वह उस पराशांति को पहुँचा हुआ होता है, जहाँ उसकी परम आत्मा यह हुआ कि उसके ज्ञान में सिर्फ परमात्मा है और कुछ है ही नहीं। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है एवं यह ध्यान से प्राप्त होती है, यह श्रीकृष्ण स्पष्ट कर रहे हैं। संयम की परिणति बड़ी विलक्षण है। इसका परिपालन करने पर हम सबके लिए वह दिव्य अनुभव संभव है, जिसमें हर क्षण हमें परमात्मा का सान्निध्य मिलता रहता है। ध्यान मात्र मन का व्यायाम या कसरत नहीं है, यह तो सीधे परमात्मा से संबंध स्थापित कराने वाली साधना है, पर यह इतनी आसान भी नहीं है। इसके लिए  श्रीकृष्ण ने कहा  हैं—(१) जिसने अपने ऊपर नियंत्रण स्थापित कर लिया हो (जितात्मनः), (२) जिसका मन पूर्णतः शांत हो (प्रशान्तस्य), वह सदैव परमात्मा की निरंतर बनी रहने वाली अनुभूति का लाभ लेता है (परमात्मा समाहितः)। फिर चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों, उसका मन प्रचंड शक्ति से संपन्न होने के कारण जरा भी नहीं गड़बड़ाता। स्वयं पर नियंत्रण एवं मन की शांति—ऐसी दो अवस्थाएँ हैं, जिनसे हम इंद्रियों के बहिर्मुखी स्वभाव और मन- बुद्धि की बहिरंग प्रधान प्रवृत्तियों को नियमित बना पाते हैं। यह नियमन साधक के व्यक्तित्व के तीनों स्तर शरीर- मन, इन तीनों स्तरों पर होना है, इसीलिए गीताकार यहाँ मुहावरे का प्रयोग करते हैं ।। वे कहते हैं, चाहे कितनी भी ठंडी या गरमी का वातावरण (शीत उष्णेषु) हो, सुख- दुःखप्रधान परिस्थितियाँ (सुखदुःखेषु)हों और मान- अपमान की (मानापमानयोः) स्थिति हो, वह सदैव परमात्मा में लीन रह अपने अंतरंग—मन को शांतिपूर्वक साधता हुआ जीवन जीता है।
       शीत- उष्ण की बात शरीर के स्तर पर, सुख- दुःख की बात मन के स्तर पर तथा मान- अपमान की बात बौद्धिक स्तर पर लागू होती है। ये अनुभव दोनों प्रकार के हो सकते हैं—अनुकूल भी, प्रतिकूल भी। मुक्तपुरुष जो बिना किसी कामना या आसक्ति के कर्म करता है, उस पराशांति की स्थिति में पहुँचा हुआ होता है, जहाँ उसकी परमात्मसत्ता उसके सामने सतत विद्यमान रहती है। यह सत्ता मन की जाग्रत् अवस्था में भी, वासना और अशांति की परिस्थितियों के मौजूद होते हुए भी तथा शीतोष्ण, सुख- दुःख, मानापमान आदि द्वंद्वों की स्थिति में भी समाहित रहती है। यह मनुष्य की उच्चतर विकसित स्थिति है। ध्यानयोग की पूर्व तैयारी वस्तुतः दिव्यकर्मी साधक, जिसे श्रीकृष्ण ध्यान करना सिखा रहे हैं, इस समय अर्जुन के रूप में उनके समक्ष मौजूद है। हम सबका वह एक प्रतीकरूप में माध्यम है, अपने गुरु योगेश्वर से यह जानना चाह रहा है कि जब मैं इस स्थिति में प्रवेश करूँगा तो क्या परेशानियाँ आ सकती हैं? श्रीकृष्ण तो मन को पढ़ लेते हैं। अभी अर्जुन का एक प्रश्र थोड़ी देर बाद प्रतीक्षित है, जिसमें वह मन की चंचलता की बात कहता है; किंतु उससे भी पूर्व श्रीकृष्ण उसे ध्यानयोग की तैयारी के विषय में बता रहे हैं। जब व्यक्ति चित्त में प्रवेश करता है तो चित्त के संस्कार, कई प्रकार की यादें, अतृप्त कामनाएँ मस्तिष्क- पटल पर आने लगती हैं। ऐसी स्थिति में दिखने वाला मन व देखने वाला मन दोनों ही द्रष्टा बन जाते हैं। यदि इंद्रियाँ मजबूत नहीं हुईं, उन पर नियंत्रण नहीं हुआ तो ध्यान लगाना तो दूर, कई प्रकार के चित्र- विचित्र दृश्य कुसंस्कारों के ‘प्रोजेक्शन’ के रूप में दिखाई देने लगेंगे। हमारा अचेतन परिष्कृत हो, इंद्रियाँ हमारी अपने ही नियंत्रण में हों तथा हम शांत मनःस्थिति में हों, तो हमारे ध्यानस्थ होने की तैयारी पूरी हो जाती है। जब मनुष्य संसार की आसक्तियों से हटकर भगवान् की ओर बढ़ता है, तो उसका मन धीरे- धीरे शांत होने लगता है। श्री रामकृष्ण परहंस के अनुसार, ‘‘जैसे- जैसे हम काशी की ओर बढ़ते हैं, कलकत्ता पीछे छूटता चला जाता है।’’ इस पंक्ति के पीछे संकेत है कि जैसे- जैसे भोगवाद से पीछा छूटता है, व्यक्ति मन की शांति, आत्मिक प्रगति की ओर बढ़ने लगता है।
संग्रहीत -----
उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

चुनोती से भरी राहुल युग की शुरुआत

कांग्रेस के अध्यक्ष के चुनाव के लिए 4 दिसंबर को नामांकन हुआ ! राहुल गाँधी पिछले कई माह से कह रहे थे कि वो पार्टी का अध्यक्ष बनने को तैयार हैं ! ओर हुआ
भी यही राहुल गांधी मे विश्वास जताते कोई विरोध नहीं हुआ ! 11 दिसंबर को ही उनके अध्यक्ष बनने का ऐलान कर दिया जाएगा, जो कि नामांकन पत्र वापस लेने की आखिरी तारीख होगी.  सोशल मिडिया पर कांग्रेस कार्यसमिति के इस फैसले की खिल्लियां उड़ाई जा रही हैं, क्योंकि सारी दुनिया को पता है कि राहुल गांधी ही कांग्रेस के अगले अध्यक्ष होंगे. उनके खिलाफ खड़े होने की हिम्मत किसी कांग्रेसी में नहीं थी ! पूर्व में गाँधी परिवार के खिलाफ अध्यक्ष पद के लिए खड़े होने वाले जीतेन्द्र प्रसाद और राजेश पायलट का क्या हश्र हुआ, ये सभी कांग्रेसियों को पता है. 
कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री मणिशंकर अय्यर जिन्होने कल देश के प्रधानमंत्री को अपने एक बयान मे नीच जेसा सम्बोधन प्रदान किया उन्ही मणिशंकर अय्यर पिछले महीने हिमाचल प्रदेश में एक बयान दिया था कि कांग्रेस में दो ही अगले अध्यक्ष हो सकते हैं, एक मां और एक बेटा. कांग्रेस में इनका कोई विरोधी ही नहीं तो फिर कोई दूसरा कैसे अध्यक्ष बन सकता है? उनके इस बयान के बाद कांग्रेस पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र को लेकर कई लोंगो ने अनेक तरह के सवाल भी उठाए, लेकिन गाँधी परिवार के प्रति कांग्रेसियों के समर्पण के आगे ये सारे सवाल महत्वहीन हो गए.वेसे मणिशंकर अय्यर को अभी मोदी जी पर नीच जेसा आरोप लगाने से कांग्रेस ने बाहर का रास्ता बता दिया !

कांग्रेस पार्टी में गाँधी परिवार के राजतंत्र को फ़िलहाल कोई चुनौती नहीं दे सकता है, क्योंकि मोदी की सुनामी में डूबते हुए जहाज सरीखी कांग्रेस पार्टी के खेवनहार आज भी गाँधी परिवार ही है. कांग्रेस के अध्यक्ष के चुनाव के लिए किया जा रहा सारा चुनावी ड्रामा देश और दुनिया को महज यह दिखाने के लिये है कि कॉंग्रेस भी एक लोकतांत्रिक पार्टी है.

 राहुल गांधी के समर्थन में पार्टी के कई दिग्गज नेता काफी समय से बोलते रहे हैं और उनको अध्यक्ष बनाए जाने की मांग करते रहे हैं. इसलिए राहुल गाँधी को कोई कांग्रेसी नेता अध्यक्ष पद के चुनाव में चुनौती देगा, ऐसा संभव तो पूर्व मे संभव ही नहीं था  . उनका निर्विरोध चुना जाना तय था 

यहाँ तक कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र दिखाने के लिए अगर चुनाव होता भी तब भी उनका अध्यक्ष बनना तय था. सोशल मिडिया पर एक सवाल उठाया जा रहा है कि कांग्रेस यदि राष्ट्रध्यक्ष (राष्ट्रपति) पद के लिए मीरा कुमार जैसे वरिष्ठ नेता को खड़ा कर सकती थी ऐसे सवालों का दरअसल एक ही जबाब है कि कांग्रेस को गाँधी परिवार की वैशाखी के सहारे ही आगे बढ़ने की बुरी लत लग चुकी है, जो छूटने वाली नहीं.

राहुल गाँधी के नेतृत्व को चुनौती देने की हिम्मत फ़िलहाल किसी कांग्रेसी नेता में नहीं, इसलिए यह तय माना जा रहा है कि अब अध्यक्ष पद पर उनकी ताजपोशी पूरे धूमधाम से होगी. इस राजनितिक ड्रामे से गुजरात के चुनावों में लाभ उठाने की भरपूर कोशिश भी की गयी. हिमाचल और गुजरात के चुनाव में पार्टी की जीत हुई तो राहुल गाँधी की वाह वाह और हार हुई तो बलि के बकरे तलाश लिए जाएंगे यानि इसकी जिम्मेदारी स्थानीय नेताओं के मत्थे मढ़ दी जाएगी. कांग्रेस अपने अब तक के राजनीतिक इतिहास में इतना बुरा दौर कभी नहीं देखी है.

कभी केंद्र के साथ साथ अधिकतर राज्यों में भी उसी की हुकूमत चलती थी और आज ये आलम है कि केंद्र की सत्ता से तो वो कोसो दूर है ही, कुछ छोटे राज्यों सहित पंजाब और कर्नाटक जैसे बड़े राज्य में ही उसकी सत्ता सिमट के रह गई है. राहुल गांधी को कांग्रेस की खिसकी हुई राजनीतिक जमीन वापस दिलाने के लिए मोदी जैसी लोकप्रिय शख्सियत से जूझना आसान नहीं होगा.

अब ये तो तय है कि कांग्रेस में अब राहुल युग की शुरुआत होगी. अध्यक्ष बनकर चुनाव हारते जाने पर राहुल गांधी के खिलाफ पार्टी के भीतर भी कई तरह की चुनौतियां पैदा होंगी. पिछले साढ़े तीन साल में मात्र पंजाब का चुनाव जीतने वाली कांग्रेस के समक्ष आज कई तरह की चुनौतियां हैं. देखें अब राहुल गांधी इन सबसे कैसे निपटते हैं? सबसे बड़ी चुनौती देश-विदेश भर में मोदी के बढ़ते हुए तिलिस्म को तोड़ना है, जो कि आसान नहीं है.
दूसरी तरफ भाजपा के अध्यक्ष और आधुनिक राजनीति के चाणक्य अमित शाह की अकाट्य राजनीतिक कूटनीति की भी काट उन्हें ढूंढनी होगी, वो भी सरल नहीं है. सोशल मीडिया पर लोग मजे ले रहे हैं कि राहुल गांधी अब जल्दी से शादी कर लें, नहीं तो अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की तरह कांग्रेस राजवंश के अंतिम बादशाह साबित होंगे. अजीब इत्तेफाक है कि दिल्ली की मुग़ल सल्तनत जब बेहद कमजोर हो गई थी, तब बहादुर शाह ज़फ़र सम्राट बने थे. आज के समय में देशभर में कांग्रेस की स्थिति भी वही है.  
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 
प्रधान संपादक - विद्रोही आवाज 
मो - 84607 83401  

Friday 1 December 2017

इंतजार है गुजरात की जनता कांग्रेस युवराज को केसा तोहफा देगी

कांग्रेस उपाध्यक्ष युवराज श्री राहुल गांधी को एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी देने का व अब उन सभी अटकलों पर विराम लगाने का समय आ गया है जो वर्ष में कम से कम दस बार सुर्खियाँ बनती थी. राहुल गाँधी का कॉंग्रेस अध्यक्ष बनना अब तय माना जा रहा है. यूँ तो कहा जा रहा है कि चुनाव के ज़रिए उन्हें चुना जाएगा परंतु यह एक औपचारिकता मात्र ही है. इसकी संभावना काफ़ी कम ही है कि कोई उनके खिलाफ नामांकन भरेगा क्योंकि उन्हें अध्यक्ष बनाने के लिए उन्हीं लोगों को चुना गया है जो 10 जनपथ के वफ़ादार हैं. 2013 में कॉंग्रेस उपाध्यक्ष बनने के बाद से लेकर अभी तक राहुल गाँधी के नाम कोई बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं रही है. कॉंग्रेस लगातार अपना जनाधार खो रही है और एक के बाद एक लगभग सभी चुनाव हार रही है. इसके बावजूद राहुल गाँधी को इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी सौपना निश्चित रूप से कॉंग्रेस के व्यापक वंशवाद का प्रतीक है. राहुल गाँधी अगर अध्यक्ष बनते हैं तो वह इस पद को ग्रहण करने वाले नेहरू-गाँधी परिवार से छठें व्यक्ति होंगे और यह शायद दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में पहली बार होगा ! राहुल गाँधी के पार्टी अध्यक्ष बनने की बात तब शुरू हुई है जब गुजरात का चुनाव प्रचार जोरों पर है. राहुल गाँधी के लिए यह चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण है. गुजरात के तीन युवा नेताओं हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर और जिग्नेश मेवानी का समर्थन कॉंग्रेस के साथ है. जीएसटी को लेकर कई व्यापारियों में आक्रोश है जिसे कॉंग्रेस भुना रही है ! मतदाताओं की भले बीजेपी के प्रति नाराज़गी हो परंतु नरेंद्र मोदी के प्रति नहीं है. राहुल गाँधी गुजरात में मंदिर-मंदिर घूमकर सॉफ्ट हिंदुत्व के ज़रिए बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की   कोशिश भी की हैं. यदि कॉंग्रेस अपनी परंपरागत वोट बैंक के साथ इस कोशिश में कामयाब होती है तो बीजेपी को थोड़ी बहुत चुनौती दे सकती है. अगर कॉंग्रेस यहाँ 70-80 सीटें जीतने में कामयाब होती है तो यह राहुल गाँधी के लिए बड़ी उपलब्धि होगी !देश कि राजनीति में कॉंग्रेस लंबे समय तक सत्ता में रही है. यही कारण है कि कॉंग्रेस सत्ता को अपनी जागीर समझती आई है और विपक्ष में रहकर उसे संघर्ष करना नहीं आया. यदि यूपीए के कार्यकाल को याद करें तो बीजेपी ने विपक्ष की भूमिका काफ़ी आक्रमक तरीके से निभाई थी. यही कारण था कि वह तत्कालीन शासन के विरुद्ध लहर बनाने में कामयाब हुई थी जिसके फलस्वरूप 2014 में प्रचंड बहुमत के साथ वह सत्ता में आई. परंतु यदि हम उसकी तुलना आज के विपक्ष से करे तो यह बहुत कमजोर दिखाई देता है और इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गाँधी इसके लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं. स्वास्थ्य वजहों से सोनिया गाँधी पहली जैसी सक्रिय रही नहीं और अब राहुल गाँधी ही नीति निर्माण की बैठकों में अहम फ़ैसले लेते हैं परंतु अभी भी उनके राजनीतिक समझ पर सवाल उठते रहते हैं. बड़ा सवाल यह है कि लगातार जनाधार खोने के बावजूद केवल राहुल गाँधी को अध्यक्ष बना देने से क्या कॉंग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को चुनौती दे पाएगी? इससे पहले, देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों के बाद विधानसभा चुनावों में मिली भारी-भरकम जीत के बाद भाजपा के हौसले बुलंद हैं. उसे वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर से सत्ता में लौटने के पूरे आसार नजर आ रहे हैं. लेकिन, वह वर्ष 2004 के अति आत्मविश्वास को दोहराना नहीं चाहती. यही वजह है कि उसने अभी से एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है. जहां भी उसे संभावना दिख रही है, वह पूरी मेहनत कर रही है. वह अटल बिहारी वाजपेयी के ‘इंडिया शाइनिंग’ कैंपेन के बाद मिली जबरदस्त हार को दोहराना नहीं चाहती.

अभी गुजरात विधानसभा चुनाव मे अपने ही गढ़ में बीजेपी को तगड़ी चुनौती मिल रही है कंही न कंही भाजपा मे गुजरात चुनाव मे दशहत है ! जिसके संकेत  से सोशल मीडिया पर साफ मिल रहे हैं ! पिछले दिनों से कांग्रेस सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर भारतीय जनता पार्टी को पटकने की तैयारी में लगी है ! कांग्रेस को काफ़ी देर से सोशल मीडिया की ताक़त का अंदाज़ा हुआ है. 2014 में नरेंद्र मोदी ने अपनी आधी लड़ाई तो सोशल मीडिया पर ही जीत ली थी. उन लोगों ने काफ़ी आक्रामक रणनीति अपनाई थी. कांग्रेस उस गैप को भरने की कोशिश तो ज़रूर कर रही है, लेकिन बीजेपी जितना आगे निकल चुकी है, ऐसे में उसे पछाड़ना आसान नहीं होगा.
गुजरात में सोशल मीडिया पर जिस तरह का गुस्सा लोग दिखा रहे हैं, कांग्रेस उसे विपक्ष के तौर पर भुनाने की कोशिश कर रही है. दरअसल नरेंद्र मोदी के केंद्र में आने के बाद गुजरात में दो मुख्यमंत्री बन चुके हैं. ऐसे में कांग्रेस इसे अपने लिए अवसर के तौर पर देख रही है, लेकिन क्या वह सोशल मीडिया पर बीजेपी जितना दमदार कैंपेन चला नहीं पा रही है ! हमे नतीजो का इंतजार करना है 
कांग्रेस के सामने संकट ये है कि उनके पास नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे फ़ैसले लेने वाले नेता नहीं हैं. अगर ये दोनों कोई फ़ैसला कर लेते हैं तो पूरा संगठन उसे लागू करने में लग जाता है, लेकिन राहुल गांधी के स्तर पर भी कांग्रेस में कोई फ़ैसला होता है तो उसे लागू करने में कई अड़चनें सामने आती हैं. इसके अलावा हमने ये भी देखा है कि आम लोग नरेंद्र मोदी की बातों का भरोसा करते हैं. ये उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान दिखा जब नोटबंदी को लेकर इतनी आलोचना हो रही थी, लेकिन लोगों ने नरेंद्र मोदी की बातों पर भरोसा किया. तो ये भी देखना होगा कि क्या कांग्रेस पार्टी दमदार ढंग से ये बता पाएगी कि नरेंद्र मोदी जो कह रहे हैं वो सही नहीं है अब देखना है गुजरात की जनता युवराज को कांग्रेस अध्यक्ष का ताज पहनने के साथ केसा तोहफा देती है 
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )