Sunday 15 October 2017

जैन संतों पर लगते आरोप ---- एक मंथन का समय है जैन समाज के लिए ..... भाग 1

मे जैन हु ओर जैन समाज मे जन्म लेना मेरे लिए बड़े गर्व की बात है ! आज अगर देखा जाए जैन समाज अल्पसंख्यक होते हुए भी हर तरह से समृद्ध है ! सामाजिक जागृति , आर्थिक , शेक्षणिक , सेवा भावना , परोपकार , दया , अहिंसा , गो सेवा , देशहित के हर कार्यो मे जैन समाज ने अपना परचम लहराया है ! भगवान महावीर के सिदान्तो का अनुगामी जैन समाज एक मच्छर मारने से पहले सो बार सोचता है यह तो छोड़िए अपनी वाणी द्वारा किसी का मन दुखे उसे भी जैन समाज हिंसा मानता है ! जैन समाज की उत्त्पती कब हुई केसे हुई स्पष्ट जानकारी तो मुझे नही मगर जैन कुल मे जन्म लेना ओर जैन धर्म के सिदान्तो का अनुसरण करने मात्र से ज्ञात होता है की इस धर्म मे सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप से हर विषय आचार ,विचार को ध्यान मे रखते हुए धर्म की स्थापना हुई होगी ! जैन समाज मे साधू संतो की चर्या सबसे कठोर होती है ! इस चर्या मे जैन समाज की ओर देखा जाये तो जैन धर्म के सिद्धान्त—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य से अभिप्रेरित है। स्याद्वाद, अनेकान्त, सप्तभंगीवाद जैसे सिद्धान्त या शैलियाँ हमारी वैचारिक दृष्टि—सरणि को संतुलित बनाते हैं और मानसिक एवं वाचनिक अहिंसा को मजबूत करते हैं। मगर आधुनिक युग जिसे हम २१वीं सदी कहते हैं उसमें जैनधर्म नए युग का धर्म बनने की ओर अग्रसर है क्योंकि आज का समाज परीक्षण के बिना कुछ भी मानने के लिए तैयार नहीं। उसे जो भी चाहिए वह सारभूत, सर्वाधिक सार्थक और सत्य से संपृक्त होना चाहिए। जैन धर्म के लिए अंतर में विद्यमान आत्मसत्य ही परमसत्य है। यह किसी भी जीव को आलोकित कर सकता है। आत्मसाक्षात्कार आत्मा को स्वयं करना होता है। इसके जो कारण हैं वे हैं साधना, चित्त—शुद्धि और आत्मावलोकन। हमारा धर्म श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र प्रधान है। जैन समाज का मूल धार्मिक आधार तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित जैनधर्म एवं दर्शन है। यह धर्म एवं दर्शन सार्वभौमिक सहअस्तित्व पर विश्वास रखता है। यह लोक के भले के लिए है किसी तंत्र विशेष के लिए नहीं। वह ‘मत’ के आधार पर विभाजित या विलोपित नहीं किया जा सकता। यहाँ सत्य का आग्रह है किन्तु दुराग्रह नहीं। विजय अर्थात् जीतने के लिए आत्मा है किन्तु प्राणियों से शत्रुता नहीं। यदि शत्रु भी कोई हैं तो वे विभाव हैं, राग—द्वेष हैं। यह स्वयं को जीतने का दर्शन है। यदि आप अपने कल्याण के पक्षधर हैं तो बने रहें; कहीं कोई आपत्ति नहीं, किन्तु ध्यान रहे दूसरों का अहित आपसे न हो; इस बात का ख्याल रहे। यह अन्त:बाह्य स्वरूप में एकत्व चाहता है। वरना तो स्थिति यह है कि— बड़ी भूल की चित्रों को व्यक्तित्व समझ बैठे। अब मे मूल विषय पर अपना ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा ! यह विषय है ... एक मंथन का समय है जैन समाज के लिए ... यह विषय ओर इस पर मुझे लिखने को मेरे मन ने क्यू कहा ?
स्पष्ट है वर्तमान की परिस्थिति को देखते हुए मेरे अन्तर्मन मे एक जिज्ञासा उत्त्पन हुई हमारा समाज समृद्ध होते हुए क्यू दिशाहीन हो रहा है! एक कटु सत्य कहु जैन समाज ने सदेव अपने अपने पंथो व संप्रदाय को महत्व देते हुए हमेशा अपना अपना राग अलापा है ! कभी कभी दर्द होता है एक संप्रदाय के होते हुए भी अपने अपने आचार्यो के बखान करने के लिए दूसरे आचार्यो व साधू संतों को नीचा दिखाने के लिए न जाने किस तरह के आक्षेप लगाए है ओर एक ऐसा माहोल बनाया की उसमे बदनाम हुआ तो पूरा जैन समाज ! आपको एक बात साफ कर दु मे श्वेतांबर संप्रदाय के तेरापंथ धर्मसंघ से जुड़ा हु ! तेरापंथ धर्मसंघ आचार्य भिक्षु के समय से अस्तित्व मे आया मगर आचार्य भिक्षु ने शायद 258 वर्ष की स्थापना का उदेश्य साधारण था ! कुछ वेचारिक मतभेद इस विषय पर मे ज्यादा चर्चा नही करूंगा ! मगर आज जैन समाज के सभी संप्रदाय व घटको को देखा जाए तो सिर्फ श्वेतांबर तेरापंथ धर्म संघ ही एक ऐसा संघ है जंहा एक आचार्य होते है ... ओर उस धर्म संघ का एक ही घोष है एक गुरु एक विधान ... मे तेरापंथी हु इसका अर्थ यह नही की मेे अपने धर्मसंघ का बखान कर रहा हु मगर एक विचारणीय व मननीय विषय है की क्यू आज हर साधू संत जिसके संघ मे साधू संतों की संख्या इक्का दुक्का हो आचार्य पद पर सुशोभित होकर अपनी अपनी अलग अलग विचारधारा को जन्म देते है मेरा अभिप्राय उन संतों व आचार्यो का अपमान करना नही है मगर जब संतों ने सर्वश्व त्याग कर संयम धर्म को अपना लिया तो क्यू पद व मान मर्यादा के लिए अपने अपने राग अलापते है ! खेर इस विषय पर ज्यादा लिखना मेरे लिए हितकर नही होगा मगर हम जैन धर्म के श्रावक के लिए समय है हमे मंथन करना होगा ! हम श्रावक सबसे बड़े दोषी है हम अपने गुरु व साधू संतों की चर्या मे जो दोष लग रहा है ! हम क्यू नही अपने गुरु व साधू संतों के जिन चर्या जो धरम के सिदान्तो के अनुरूप नही है उन्हे उन चर्या को करने से रोकते है ! कारण स्पष्ट है हम अपने धर्म गुरु के मुखारवृन्द से अपने तारीफ सुनने के आदि हो चुके है ! जिससे हमे गर्व हो ओर समाज मे मान सन्मान मिले .... मगर मे एक साधारण सा पत्रकार व लेखक आपके विचारो की आलोचना करता हु ! आपने स्वयं के हित के लिए समाज की मान मर्यादा को दाव पर लगा दिया है ! हम जैन है ओर भगवान महावीर के बताए मार्ग का अनुसरण करना है तो गुरु , साधू , संत , आचार्यो का सन्मान करते हुए उनके अच्छे कार्यो मे सहमति दे ओर हमे लगे की हमारे साधू संत आचार्य हमे अपने निजी स्वार्थ के कारण भ्रमित कर रहे है तो विरोध करे ! तो न सूरत मे आचार्य शांति सागर जी पर जेसे आरोप लगे इस तरह के आरोपो का हमे सामना करना पड़ेगा न ही हमारे सम्पूर्ण जैन समाज की बदनामी होगी ! हमे स्वयं संयमित जीवन जीते हुए साधू संतों को संयमित जीवन मे रहने की ओर प्रेरित करेंगे ! मेरे इन शब्दो से आपको जरूर कष्ट होगा की हम हमारे समाज मे संतों को संयमित रहने के लिए केसे प्रेरित करे मगर सच यही है साधू संतों की चर्या मे दोषी सबसे ज्यादा दोषी हमारा समाज , मे व आप ही है ! जो सिर्फ साधू संतों व आचार्यो की नजर मे बड़ा बनने के लिए उनकी चर्या मे दोषी बनते है .... आगे अगले अंक मे ....
आपका -
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )        

Thursday 5 October 2017

मेरे मन की बात - स्वच्छ भारत अभियान एक बड़ी चुनौती 2019 तक क्या मोदी जी का सपना साकार होगा

आज उधना स्टेशन से मेरे ऑफिस के लिए  निकल रहा था किसी काम से एक गली से निकला एक महानगर पालिका द्वारा संचालित एक शोचालय की तरफ नजर पड़ी अपनी दुपहिया गाड़ी वहा रोकी ओर निहारने लगा   जिसके बाहर एक बड़ा स्लोगन लिखा था - "बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ  -बिन शोचालय के दुल्हन का शृगार  अधूरा है " साथ मे बहुत से स्लोगन लिखे हुए थे ! सभी स्लोगन पढे अच्छे भी लगे विचार किया क्यू नही अंदर जाकर स्वच्छता को भी निहार आऊ ! अंदर जाने लगा एक बिहारी बाबू ने शायद कोंटरेक्ट लिया हुआ है उसने शायद सोचा ने शोच के लिए आया हु ! मेने अपना बिना परिचय दिये वंहा सामने दीवार पर रेट लिखी हुई थी नहाने का 5 रुपया शोच का 2 रुपया जो साफ साफ नही दिख रहे थे ! ज्यादा पेसे लेने के लिए शायद रुपये जो लिखे हुए थे हल्के से मिटा दिये गए जिससे साफ न दिखाई दे ! मेने जेब से 2 का सिक्का निकाल कर दिया उक्त ठेकेदार या ठेकेदार का कर्मचारी होगा 3 रुपया मांगने लगा ! जब मेने उसे कहा निश्चित शुल्क तो 2 रुपया है फिर ज्यादा वसूली क्यू ? शायद उसे कुछ भनक लग गयी मुझसे उलझा तो नही अंदर जाकर देखा कुछ के दरवाजे टूटे है तो बहुत  जगह पान मावे व गुटके की पीक मारी हुई है ओर इतनी बदबू की ज्यादा देर हम खड़े भी नही रह सकते !  सरकार द्वारा चलायी जा रही स्वच्छ भारत ओर जगह जगह  शोचालय की परिकल्पना लेकर वंहा से निकला ओर एक ब्लॉग लिखने का विषय मिल गया ---- 
           हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी  ने प्रधानमंत्री पद की शपथ के साथ ही एक बहुत बड़ा मिशन हाथ मे लिया  "स्वच्छ भारत " निसंदेह मोदी जी द्वारा यह शुरू किया  मिशन प्रसंशनीय भी था ! खेर सफलता के किस शिखर पर हम पहुंचे कोई स्पष्ट आंकड़े तो  नही मगर देखा जाये तो   देश को स्वच्छ बनाने के प्रधानमंत्री मोदी के संकल्प की समय-सीमा ज्यों-ज्यों समीप आती जा रही है, राज्यों और उनके प्रशासन पर यह लक्ष्य हासिल करने का दबाव बढ़ता जा रहा है. 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने आह्वान किया था कि 2019 तक पूरे देश को साफ-सुथरा बनाना है. खुद उन्होंने दिल्ली की एक सड़क पर झाड़ू लगाकर स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की थी. उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और भाजपाई राज्यों के मुख्यमंत्रियों एवं मंत्रियों ने भी झाड़ू पकड़कर स्वच्छता का संकल्प लिया था. जो हमे आए दिन इलेक्ट्रोनिक मीडिया व प्रिंट मीडिया मे दिखाई देता था !  
इसमें दो राय नहीं कि स्वच्छ भारत मिशन अत्यंत आवश्यक और पवित्र संकल्प है. गांवों से लेकर शहरों तक भीषण गंदगी फैली है. पीने का साफ पानी स्वच्छ होना तो बहुत दूर की बात है, कूड़े-कचरे, मलबे और मानव उच्छिष्ठ के कारण गांवों से लेकर शहरों-महानगरों तक की आबादी घातक रोगों की चपेट में आती रहती है.  जिनसे हर साल सैकड़ों-हजारों बच्चों की मौत होती है, इन बीमारियों के होने और फैलने का प्रमुख कारण गंदगी है. पूर्व की कांग्रेस सरकारों और यूपीए शासन में निर्मल भारत योजना चलायी जरूर गयी, लेकिन किसी प्रधानमंत्री ने इस अभियान को ऐसी प्राथमिकता और इतना ध्यान नहीं दिया जितना ध्यान मोदी सरकार ने प्राथमिकता से दिया ! 
प्राप्त सरकारी आंकड़ों (नेट से प्राप्त ) पर विश्वास करें, तो देश का सफाई-प्रसार (सैनिटेशन कवरेज) जो 2012-13 में 38.64 फीसदी था, वह 2016-17 में 60.53 फीसदी है. 2014 से अब तक करीब तीन करोड़ 88 लाख शौचालय बनवाये गये हैं.  
एक लाख 80 हजार गांव, 130 जिले और तीन राज्य- सिक्किम, हिमाचल और केरल- खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिये गये हैं. दावा है कि इस वर्ष के अंत तक गुजरात, हरियाणा, पंजाब, मिजोरम और उत्तराखंड भी इस श्रेणी में आ जायेंगे. 
 
जमीनी हकीकत बहुत फर्क है. देश में शायद ही ऐसा कोई नगर निगम, नगर पालिका या पंचायत हो, जिसके पास अपने क्षेत्र में रोजाना निकलने वाले कचरे को उठाने और कायदे से उसे निपटाने की क्षमता हो. जो कचरा उठाया जाता है, किसी बाहरी इलाके में उसका पहाड़ बनता जाता है. सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा कायम है. खुले में शौच की मजबूरी का नारकीय उदाहरण तो रोज सुबह ट्रेन की पटरियों, खेतों-मैदानों में दिखाई ही देता है.
 
प्रधानमंत्री और सारे मंत्री चाहे जितना झाड़ू उठा लें, कचरा प्रबंधन और नगर निगमों-नगर पालिकाओं की क्षमता बढ़ाये बिना शहर और कस्बे साफ नहीं हो सकते. नागरिकों को सफाई अपने व्यवहार का हिस्सा बनानी होगी. इन मोर्चों पर क्या हो रहा है?
 
स्वच्छ भारत मिशन का सारा जोर खुले में शौच को बंद करना है. जिलाधिकारियों पर अपने जिले को इससे मुक्त घोषित करने का दबाव है. उसी दबाव के चलते अभी अभी कुछ दिनो पूर्व सुना है जिलाधिकारी के आदेश  लुंगी खुलवाई जा रही है, कहीं टॉर्च चमकाया जा रहा है और कहीं भारी जुर्माना थोपा जा रहा है. ! 
 
क्या ऐसे अपमान और आतंक से लोगों को समझाया जा सकता है? स्वच्छ भारत मिशन की दिशा-निर्देशिका कहती है कि गांव-गांव स्वच्छता-दूत तैनात किये जायें, जो लोगों को समझायें कि खुले में शौच के क्या-क्या नुकसान हैं. लोगों को समझाना है, न की अपमानित करना ! 
बहुत सारे लोग शौचालय बनवा लेने के बावजूद खुले में जाना पसंद करते हैं. पुरानी आदत के अलावा ऐसा शौचालयों की दोषपूर्ण बनावट के कारण भी है. हमे यदा कदा शोशल मीडिया पर सरकार या पालिका द्वारा बनवाये शोचालय मे पान की दुकान तो कंही किराने की दुकान के फोटो भी प्राप्त हुए ! 
सरकारी दबाव और मदद से जो शौचालय बनवाये गये हैं, अधिसंख्य में पानी की आपूर्ति नहीं है. ‘सोकपिट’ वाले शौचालयों में पानी कम इस्तेमाल करने की बाध्यता भी है. नतीजतन दड़बेनुमा ये शौचालय गंधाते रहते हैं. ‘कपार्ट’ के सोशल ऑडिटर की हैसियत से मैंने देखा है कि लोग ऐसे शौचालयों का प्रयोग करना ही नहीं चाहते. बल्कि, उनमें उपले, चारा और दूसरे सामान रखने लगते हैं. 
 
एक बड़ी आबादी शौचालय नहीं बनवा सकती, क्योंकि उसके लिए दो जून की रोटी जुटाना ही मुश्किल है. गंगा के तटवर्ती गांवों को खुले में शौच-मुक्त कर लेने के सरकारी दावे की पड़ताल में एक सर्वे  मे हाल ही में पाया कि लगभग सभी गांवों में ऐसे अत्यंत गरीब लोग, जिनमें दलितों की संख्या सबसे ज्यादा है, अब भी खुले में शौच जा रहे हैं. वे शौचालय बनवा पाने की हैसियत ही में नहीं हैं. सरकारी सहायता तब मिलती है, जब शौचालय बनवाकर उसके सामने फोटो खिंचवायी जाये.  
शहरों-महानगरों में एक बड़ी आबादी झुग्गी-झोपड़ियों में रहती है. मजदूरी करनेवाले एक बोरे में अपनी गृहस्थी पेड़ों-खंभों में बांधकर फुटपाथ या खुले बरामदों में जीते हैं. इनके लिए सामुदायिक शौचालय बनवाने के निर्देश हैं. अगर वे कहीं बने भी हों, तो उनमें रख-रखाव-सफाई के लिए शुल्क लेने की व्यवस्था है, जो इस आबादी को बहुत महंगा और अनावश्यक लगता है. 
खुले में शौच से मुक्ति का अभियान सचमुच बहुत बड़ी चुनौती है. इसका गहरा रिश्ता अशिक्षा और गरीबी से है. सार्थक शिक्षा दिये और गरीबी दूर किये बिना सजा की तरह इसे लागू करना सरकारी लक्ष्य तो पूरा कर देगा, लेकिन सफलता की गारंटी नहीं दे सकता. आज सरकार के साथ आम जनता को इस अभियान के लिए जागृत होना होगा ! 
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

Sunday 1 October 2017

गांधी जयंती पर विशेष - मेरे मन की बात

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की आज 148वीं जयंती है. आज सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बापू के समाधि स्थल राजघाट जाकर श्रद्धांजलि दी. इस के साथ ही पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने भी महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी. राष्ट्रपति रामनाथ कोलिंद और उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू में भी महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी. प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर महात्मा गांधी को याद किया. उन्होंने लिखा, ”गांधी जयंती पर बापू को शत्-शत् नमन! मैं गांधी जयंती पर प्रिय बापू को नमन करता हूं. उनके महान आदर्श दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रेरित करते हैं.
आज पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शात्री की भी 113वीं जयंती है. पूरा देश धूमधाम से गांधी-शांस्त्री जयंती मना रहा है. प्रधानमंत्री मोदी ने लालबहादुर शास्त्री को भी याद किया. उन्होंने लिखा, ”जवानों एवं किसानों के प्रणेता एवं देश को कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाले शास्त्री जी को नमन!” 
वेसे गांधी जयंती या  लालबहादुर शास्त्री जयंती हो या कोई भी जयंती एक परंपरा है उन्हे याद करने की ओर श्रद्धांजलि अर्पित करने की मगर हमे सोचना यह है  पूरे विश्व में हिंसा का दौर बढ़ता जा रहा और जितना यह बढ़ेगा उतनी ही बढ़ेगी गांधी जी की अहिंसा सिद्धांत की प्रासंगिकता बढ़ेगी । महात्मा गांधी ने भारत को आजादी दिलाई यह कहना कुछ अतिश्योक्ति मानते हैं तो कुछ लोग महात्मा गांधी को अप्रासंगिक सिद्ध करने के लिये हिंसा का समर्थन भी करते हैं। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन दौरान  भी एक वर्ग हिंसा का समर्थक   तो दूसरा उदारवादी था जो महात्मा गांधी  के साथ रहा। मगर यह दोनों ही प्रकार के वर्गों के प्रसिद्ध नाम  घूमते उसी आजादी के आंदोलन के एतिहासिक घेरे में ही हैं जिसका शीर्षक महात्मा गांधी के नाम से लिखा जाता है। इसी आंदोलन के कुछ नेताओं और शहीदों के नाम से कुछ अन्य लोग विचारधारायें चला रहे हैं। इतना ही नहीं भारतीय अध्यात्म ज्ञान तो उनके लिये पुराना पड़ चुका है और उसका अब कोई महत्व नहीं है। जहां तक अध्यात्मवादियों  का सवाल है वह वह भारत को न तो कभी  गुलाम हुआ मानते हैं न ही केवल राजनीतिक आजादी  का उनके लिए कभी महत्व रहा है।  उनके लिए यह केवल राजस बुद्धि वालों का  भ्रम है की वह आपसी संघर्षों से समाज को नियंत्रित करने का दावा करते हैं 
जबकि यह कार्य प्रकृति  स्वयं करती है। अगर सही आंकलन करें तो आज के समाज में गरीबी, भ्रष्टाचार, भय, और अपराध के विरुद्ध चलने वाले आंदोलनों को इसी अहिंसा के मार्ग पर चलना चाहिये क्योंकि महात्मा गांधी आज के लोकतांत्रिक समाज में राज्य का विरोध करने के लिये हिंसा के पुराने तरीके हिंसक तख्ता पलट की जगह इसे सही मानते थे। आपने इतिहास में देखा होगा कि अनेक प्रकार के राजा जनता की नाराजगी के कारण हिंसा का शिकार हुए या उनका तख्ता पल्टा गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय का अवलोकन करें तो उस समय कार्ल मार्क्स  का प्रभाव बढ़ रहा था और उसके चेले व्यवस्था का बदलाव हिंसा के सहारे कर रहे थे जबकि लगभग उसी समय महात्मा गांधी ने आंदोलनों को अहिंसा का मार्ग दिखाया। यही पश्चिम के गोरे लोग चाहते थे पर अंततः उनको भी यह देश छोड़ना पड़ा पर वह छोड़ते हुए इस देश में हिंसा का ऐसा इतिहास छोड़ गये जिससे आज तक यहां के निवासी भुगत रहे है।
               मूल बात यही है कि महात्मा गांधी आधुनिक समाज के संघर्षों में हिंसक की बजाय अहिंसक आंदोलन के प्रणेता थे। उनकी याद भले ही सब करते हों पर हथियारों के पश्चिमी सौदागर और विचारों के पूर्वी विक्रेता उनसे खौफ खाते हैं। गनीमत है पश्चिम वाले एक दिन महात्मा को याद कर अपने पाप का प्रायश्चित करते हैं पर पूर्व के लोग तो हिंसावाद को ही समाज में परिवर्तन का मार्ग मानते हैं। यहां यह भी बता दु कि महात्मा गांधी राज्य चलाने के किसी सिद्धांत के प्रवर्तक नहीं थे क्योंकि उसके लिये आपको सत्ता की राजनीति करनी पड़ती है जिसका आंदोलन की राजनीति से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। इसलिये ही सारी दुनियां की सरकारें महात्मा गांधी को याद करती है ताकि उनके विरुद्ध चलने वाले आंदोलन हिंसक न हों।
              यहा साफ करना चाहूँगा  की हिंसक या अहिसक आंदोलनों से सत्ता या सरकार  बदलना एक अलग बात है पर राज्य को सुचारु तरीके से चलाना एक अलग विषय है। महात्मा गांधी कम से कम इस विषय में कोई ज्ञान नहीं रखते थे। यही कमी उनको एक पूर्ण राजनेता की पदवी देने से रोकती है। हमारा  देश हजारों वर्ष पुराना है। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान तो जीवन जीने की ऐसी कला सिखाता है कि पूर्व और पश्चिम दोनों ही उसे नहीं जानते पर अपने ही देश के लोग उसे भूल रहे हैं। दक्षिण एशिया जहां एक नहीं बल्कि तीन तीन अहिंसा के पूजारी और प्रवर्तक हुए वहां हिंसा का ऐसा बोलबाला है जिसकी चर्चा पूरे विश्व में हैं। पाकिस्तान के कबाइली इलाके हों या हमारे पूर्वी हिस्से। 
धार्मिक और राजनीतिक क्रूर सिद्धांतों की जकड़ में हैं। एक बात यकीनी तौर से मानिए कि आज के संदर्भ में कोई भी आंदोलन गरीबों और शोषकों के नाम पर सफल होता है पर किसी का भला हो यह नहीं दिखता। हकीकत तो यह है कि इन आंदोलनों को पैसा भी मिलता है। अब यह पैसा कौन देता है यह अलग से चर्चा का विषय है। इसी पैसे के लिये व्यसायिक आंदोलनकारी किसी विचाराधारा या नारे को गढ़ लेते हैं। अगर वह हिंसा का समर्थन न करें तो शायद उनको वह पैसा न मिले। साफ बात कहें तो इन हिंसक आंदोलनों की आड़ में पैसा देने वाले कुछ न कुछ आर्थिक लाभ उठाते हैं। ऐसे में उनके लिये गांधी का अहिंसा सिद्धांत का धोखे की टट्टी है। तब भी वह अधिक दूर नहीं जाते। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान शहीद हुए गरमपंथी महापुरुषों की तस्वीरें लगाकर उनका प्रचार करते हैं। साथ ही गांधी जी की आलोचना करने से उनको कोई गुरेज नहीं है।
              अब एक दूसरी बात यह है कि हम आजादी की बात करते हैं पर आज जब उस आजादी पर चर्चा होती है तो अनेक प्रकार के सवाल भी आते हैं। आखिर गांधी जी किससे आजादी चाहते थे? केवल गोरी चमड़ी से या उनके राज्य से। याद रखिये आज भी इस देश में अंग्रेजों के बनाये हुए कानून चल रहे हैं। इनमें से तो कई ऐसे हैं जो इस समाज को निंयत्रित करने के लिये यहीं के लोगों ने उनको सुझाये होंगे। इनमें एक वैश्यावृत्ति कानून भी है जिसे अनेक सामाजिक विशेषज्ञ हटाने की मांग करते हैं।  उनका मानना है कि यह कथित रूप से कुछ अंग्रेजपरस्त लोगों ने इस बनवाया था ताकि भारत की सामाजिक गतिविधियों को मुक्त रूप से चलने से रोक जा सके।  दुसरा जूआ का भी कानून है। अनेक विद्वान समाज सुधार में सरकारी हस्तक्षेप के विरोधी हैं और वह मानते हैं कि यह सरकार काम नहीं है। अनेक विद्वान समाज सुधार में सरकारी हस्तक्षेप के विरोधी हैं और वह मानते हैं कि यह सरकार काम नहीं है। 
अपराधी रोकना सरकार का काम है न कि समाज के संस्कारों की रक्षा करना उसकी कोई जिम्मेदारी है। कुछ लोग कहते हैं कि वैश्यावृत्ति, जुआ या व्यसनों की प्रवृत्ति पर अंकुश रखना सरकार का काम नहीं बल्कि यह समाज का स्वयं का दायित्व है। कहने का मतलब है कि लोग यही मानते हैं कि समाज स्वयं पर नियंत्रण करे न करे तो वही दायी है। जो आदमी व्यसन या बुरा काम करता है तो अपनी हानि करता हैै। हां जहां वह दूसरे की हानि करता है तो बहुत सारे कानून है जो लगाये जा सकते हैं। लोग तो सतीप्रथा वाले कानून पर सवाल उठाते हैं और पूछते हैं कि उस समय या उससे पहले कितनी स्त्रियां इस देश में सती होती थीं। जिनको होना है तो अब भी इक्का दुक्का तो अब भी घटनायें होती है। वैसे ही अगर किसी स्त्री को जबरन सती कर दिया जाता है तो हत्या का अपराध या वह स्वयं होने के लिये तत्पर होती है तो आत्महत्या का कानून उस पर लग सकता है तब सती प्रथा रोकने के लिये अलग से कानून की जरूरत क्या थी?
                         मुझे तो ऐसा लगता है कि अंग्रेजों की नजरों में बने रहने के लिये अनेक लोगों ने उस समय अनेक प्रकार के सामाजिक सुधार आंदोलन चलाये होंगे। इस तरह समाज में सरकारी हस्तक्षेप की प्रवृत्ति बढ़ी जिसका अनेक सामाजिक विशेषज्ञ विरोध करते रहे हैं। सीधा मतलब यह है कि अंग्रेज चले गये पर अंग्रेजियत छोड़ गये। वह भी इसलिये कि महात्मा गांधी यहां प्रासगिक नहीं रहें। वैसे भी अपने देश में उनको किस प्रसंग में याद किया जाये? हां, इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज के युग में अपनी अभिव्यक्ति या आंदोलन के लिये उनका सिद्धांत अति प्रासंगिक हैं। उनको इसलिये नमन करने का मन करता है।
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )