Saturday 30 September 2017

मेरी बेटी का जन्म दिवस मेरी मन की बात

आज मेरी बिटिया जीवन के 22 बसंत पार कर 23 वे वर्ष मे प्रवेश कर गयी ! आज दोपहर मे बच्चो-  प्रतीक ,नमन  रिंकल , भांजी वेशाली व भतीजे (साला जी का लड़का ) अंकित  जो खास तोर से मुंबई से मेरी बिटिया का जन्मदिवस मनाने सुरत आया ! आजकल के बच्चो मे जन्मदिवस मनाना एक विशेष शोख होता है ! वेसे केक काटना या सेलिब्रेट करना मे ज्यादा महत्व नही देता ! मगर बच्चो की खुशी देख मन मे खुशी होती है आज मेरी बिटिया का जन्म दिवस था ! मे उन पूर्व के 22 वर्ष की यादों मे खो गया ! जिस दिन मेरी बेटी का जन्म हुआ था ! मेरी स्वर्गस्थ पत्नी कुसुम जब गर्भ से थी रात 12.45 बजे उसे प्रसव पीड़ा हुई मे नींद मे था मुझे कुसुम ने बोला हॉस्पिटल चलो मुझे बहुत दर्द हो रहा है ! उस समय मेरी उम्र 24  वर्ष थी ! अगर यू कहा जाए मे बच्चा ही था ! क्यू की मेरी शादी 20 वर्ष की उम्र मे ही हो गयी थी ! मेने उसी समय मेरी माँ को बोला इसे बहुत दर्द है हॉस्पिटल लेकर चलते है मगर माँ का अनुभव था उसने बोला अभी नही चलेंगे कुछ देर बाद चलेंगे एक क्षण मन मे गलत भ्रांति भी आई माँ क्यू नही समझती मगर चुप रहा ! क्यू की उम्र का कच्चा था शायद बाप बनकर भी नादान था  माँ साफ बोल दिया की हम 3-4 घंटे बाद जाएंगे हॉस्पिटल ! मन मे घृणा के स्वर उभरे मगर माँ का आदेश सर्वोपरि था ! यह बात तो बात  मे समझा की जल्दी चला जाता तो डॉक्टर सर्जरी से बेटी को जन्म दे देती जो आजकल होता है ! ठीक 4 बजे मे माँ के साथ पत्नी कुसुम को लेकर  डॉ कमला हॉस्पिटल लेकर गया  माँ ने बोला तू जा ओर सो जा मे हु हॉस्पिटल ओर मे माँ के आदेश का पालन करते हुए पास मे ही मेरी दुकान मे जाकर सो गया ! कुछ देर यानी करीब २ घंटे  बाद मेरी माँ ने दुकान का शटर बजाया ओर रोते हुए बोली उत्तम बेटी हुई है हॉस्पिटल मे आ ! खेर मुझे तो कुछ अफसोस नही था की बेटी हो या बेटा मगर माँ थी की वो चाहती थी मेरी दूसरी संतान बेटा हो ! मे जब हॉस्पिटल गया जो महज मेरी दुकान से ५० मीटर दूरी पर था देखा की मेरी पत्नी कुसुम भी मुझे देखकर रोने लगी की बेटी हुई है ! उसे समझाते हुए बोला तो क्या हुआ यह तो हमारे भाग्य की बात है नसीब वालो को मिलती है बेटी !
मगर अगले की कुछ देर मे जब बेटी को नर्स जब लेकर आई मेरी पत्नी का ममत्व जाग उठा उसे अब नही लग रहा था की मेने बेटी को जन्म दिया या बेटे को कुछ समय मे मेरी माँ यानी बेटी की दादी भी उसे बहुत प्यार करने लगी ! समय निकलता गया ! बेटी १६ वर्ष की हुई मेरी पत्नी कुसुम का सड़क दुर्घटना मे  देहावसान हो गया मेने दूसरी शादी की ! आज माँ के रूप मे ममता अपना फर्ज निभा रही है ! एक कहावत है जन्मदात्री माँ से महान पालनहार माँ महान होती है ! चाहे केसी  भी हो कल रात को जब मे घर गया मेरी पत्नी ने मुझे बताया मेरे साला जी का लड़का यानी भतीजा अंकित हिनल का जन्मदिवस मनाने रात को २ बजे आ रहा है मुंबई से ओर हमने केक भी मंगा लिया है ओर बेटी को नही बताना है इस लिए घर के सामने केक  लाकर रखा है ! बड़ी खुशी हुई माँ व बच्चो का प्यार देखकर   आज मुझे तो बड़ी खुशी होती है जब बेटी को खुश देखता हु ! आज पूरे परिवार ने अच्छे से बेटी का जन्मदिवस मनाया ! जीवन मे बेटी भाग्यशाली को ही मिलती है मुझे तो ३-३ बेटियाँ मिली है यह मेरा अहोभाग्य है ...... लिखना तो बहुत है मगर शब्दो को यही विराम दूंगा
उत्तम जैन - विद्रोही    

Thursday 28 September 2017

करारा प्रहार आतंक पर

राजनीतिक नेतृत्व का इरादा स्पष्ट और सशक्त हो, तो उससे कैसे परिणाम प्राप्त होते हैं, इसकी एक ताजा मिसाल भारत-म्यांमार सीमा पर देखने को मिली है। ना तो कश्मीर में आतंकवाद नया है, और ना ही उत्तर-पूर्वी राज्यों में। लेकिन अतीत में कभी दहशतगर्दों पर वैसा प्रहार नहीं होता था, जैसा बीते तीन सालों में देखने को मिला है। जून 2015 में मणिपुर में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (खापलांग) के उग्रवादियों द्वारा किए गए हमले में सेना के 18 जवान शहीद हुए थे। उसके कुछ दिनों के अंदर ही भारतीय सेना ने भारत-म्यांमार सीमा पर दोषी हमलावरों के अड्डों पर धावा बोलकर उन्हें ठिकाने लगा दिया। पिछले साल पाकिस्तान से आए आतंकियों ने उरी में भारतीय सेना के शिविर को निशाना बनाया। उसके दस दिन बाद ही (28-29 सितंबर की रात) जम्मू-कश्मीर से लगी नियंत्रण रेखा के उस पार जाकर हमारे सैनिकों ने बहुचर्चित सर्जिकल स्ट्राइक की। उसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए सेना ने अब भारत-म्यांमार सीमा पर एनएससीएन (खापलांग) को भारी क्षति पहुंचाई है। सेना ने स्पष्ट किया है कि उसने सरहद पार नहीं की। म्यांमार से भारत के दोस्ताना संबंध हैं। कभी वहां भारतीय उग्रवादियों ने ठिकाने बना रखे थे। लेकिन बाद में म्यांमार सरकार ने उन्हें अपनी जमीन से बेदखल कर दिया। जब पड़ोसी देश सहयोग कर रहा हो, तो उसकी प्रादेशिक संप्रभुता का उल्लंघन करने की जरूरत भी नहीं होती। मकसद तो आतंकी समूहों का खात्मा है। 

भारतीय सुरक्षा बल दशकों से इस प्रयास में जुटे हुए हैं। परंतु नई बात यह है कि मौजूदा केंद्र सरकार ने उन्हें कार्रवाई करने की पूरी स्वतंत्रता दी है। नतीजतन, उनके रुख में आक्रामकता आई है। ताजा कार्रवाई भारतीय सेना के एक दस्ते पर फायरिंग के बाद की गई। इसके पहले इस महीने के आरंभ में सेना ने अरुणाचल प्रदेश से जुड़ी भारत-म्यांमार सीमा पर एनएससीएन (खापलांग) के खिलाफ एक बड़ी कार्रवाई की थी। उस दौरान आतंकियों के छिपने के कई अड्डे तबाह किए गए। हथियार, गोला-बारूद और रेडियो सेट्स की बरामदगी भी हुई। नगालैंड मसले को हल करने के लिए भारत सरकार व एनएससीएन (इसाक-मुइवा) के बीच शांति वार्ता चल रही है। लेकिन इस संगठन का खापलांग गुट बातचीत में शामिल होने से इनकार करता रहा है। उसने हिंसक गतिविधियां जारी रखी हैं। भारत और म्यांमार के बीच लगभग 1,640 किलोमीटर लंबी सीमा है, जो अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड व मणिपुर से सटी है। इस इलाके में खापलांग गुट हमले करता रहा है। मगर अब भारतीय सुरक्षा बलों ने उस पर दबाव बढ़ा दिया है। पिछले दो महीनों में खापलांग गुट को काफी क्षति पहुंची है।

साफ है  ऐसा हमारे सुरक्षा बलों की बेहतर रणनीति, नियोजन और सही ठिकानों पर सटीक निशाना साधने की क्षमता के कारण हुआ है। मगर एक हद तक इसका श्रेय केंद्र की मौजूदा सरकार को भी है, जिसने आतंकवाद या उग्रवाद के प्रति शून्य सहिष्णुता की नीति अपना रखी है। भारत-म्यांमार सीमा पर लांग्खू गांव के पास हुई ताजा कार्रवाई इसी नीति का परिणाम है, जिसमें कई उग्रवादियों को मौत के घाट उतार दिया गया।
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Tuesday 26 September 2017

समझ तो सब रही है जनता देश की मगर फिलहाल चुप है


बचपन मे हमेशा एक गाना गुनुगुनाया करता था जो एक पुरानी फिल्म, ‘यकीन’ का गाना है… “ बच के, बच के कहाँ जाओगे”,  जो आज पूरी तरह देश के मध्यम वर्ग पर लागू है। उस गाने के बोलों को बिना जुबान पर लाए, आजमाया जा रहा है, देश के इस शापित वर्ग पर। देश की जनता समझ तो सब रही है, फिलहाल चुप है। पर उसकी चुप्पी को अपने हक़ में समझने की भूल भी लगातार की जा रही है। आम-जन के धैर्य की परीक्षा तो ली जा रही है, पर शायद यह सच भुला दिया गया है कि हर चीज की सीमा होती है। नींबू चाहे कितना भी सेहत के लिए मुफीद हो, ज्यादा रस पाने की ललक में अधिक निचोड़ने पर कड़वाहट ही हाथ लगती है।
अभी बैंकों की सर्कस चल ही रही है।  जिसके तहत पैसे जमा करने, रखने, कितने रखने, निकालने, कितने निकालने जाइए करतब दिखाए जा रहे हैं। तंग होकर भी लोगों ने शो चलने दिया है, क्योंकि रोजी-रोटी की कशमकश के बाद थके-टूटे इंसान के पास यह सब सोचने का समय ही कहाँ छोड़ा गया है। पर विरोध का ना होना भी अन्याय का समर्थन ही है।

इसी विरोध के ना होने से साथ ही बारी आ गई किरायों की। लोग बसों से आते-जाते थे, उसके किराए बढ़ा दिए गए। लोगों ने चुप रह मेट्रो का रुख किया, तो उसकी कीमतें भी बढ़ा दी गयीं। तर्क ये कि सालों से इसका किराया नहीं बढ़ा है। गोयाकि सालों से नहीं बढ़ा है, सिर्फ इसीलिए बढ़ाना जरूरी है। भले ही वह फायदे में चल या चलाई जा सकती हो। पर नहीं सबसे आसान तरीका सब को यही सूझता है कि मध्यम वर्ग की जेब का छेद बड़ा कर दिया जाए।

आम नागरिक फिर कड़वा घूंट पीकर रह गया। लोगों ने इसका तोड़, कार-स्कूटर पूल कर निकाला, तो फिर इस बार सीधे पेट्रोल पर ही वार कर दिया गया। उस पर तरह-तरह के टैक्स, फिर टैक्स पर टैक्स, फिर सेस, पता नहीं क्या-क्या लगा उसकी कीमतों को अंतर्राष्ट्रीय कीमतों से भी दुगना कर दिया गया। हल्ला मचा तो हाथ झाड़ लिए।

सरकारी, गैर-सरकारी कंपनियों की कमाई कहाँ से आती है, मध्यम वर्ग से। देश भर में मुफ्त में अनाज, जींस, पैसा बांटा जाता है, उसकी भरपाई कौन करता है, मध्यम वर्ग। सरकारें बनाने में किसका सबसे ज्यादा योगदान रहता है, मध्यम वर्ग का। फिर भी सबसे उपेक्षित वर्ग कौन सा है, वही मध्यम वर्ग।

अब तो उसे ना किसी चीज की सफाई दी जाती है और ना ही कुछ बताना गवारा किया जाता है। तरह-तरह की बंदिशों के फलस्वरूप इस वर्ग के अंदर उठ रहे गुबार को अनदेखा कर उस पर धीरे-धीरे हर तरफ से शिकंजा कसा जा रहा है कि कहीं बच के ना निकल जाए। ऐसा करने वाले उसकी जल्द भूल जाने वाली आदत और भरमा जाने वाली फितरत से पूरी तरह वाकिफ हैं, इसीलिए अभी निश्चिंत भी हैं। पर कब तक ?
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

Monday 25 September 2017

मां-पत्नी की वर्चस्व की जंग में पिसता है आदमी

शादी करके फंस गया यार, अच्छा खासा था कुंवारा…भले ही इस गाने को सुनकर हंसी आये, किन्तु ये पंक्तियाँ आदमी की उस व्यथा का चित्रण करने को पर्याप्त हैं, जो उसे शादी के बाद मिलती है. आज तक सभी शादी के बाद नारी के ही दुखों का रोना रोते आये हैं, किन्तु क्या कभी गौर किया उस विपदा का जो आदमी के गले शादी के बाद पड़ती है. माँ और पत्नी के बीच फंसा पुरुष न रो सकता है और न हंस सकता है. एक तरफ माँ होती है, जो अपने हाथ से अपने बेटे की नकेल निकलने देना नहीं चाहती और एक तरफ पत्नी होती है, जो अपने पति पर अपना एक छत्र राज्य चाहती है. आमतौर पर यह भी देखने में आया है कि लड़के की शादी को तब तक के लिए टाल दिया जाता है, जब तक उसकी बहनों का ब्याह न हो जाये. क्योंकि एक धारणा यह भी प्रबल है कि लड़का शादी के बाद पत्नी के काबू में हो जाता है और फिर वह घर का कुछ नहीं करता, जबकि जब अपनी लड़की को ब्याहते हैं, तो ये चाहते हैं कि लड़का अपनी पत्नी का मतलब उनकी बेटी का हर तरह से ख्याल रखे. उसे कोई भी कष्ट न होने दे. मगर बहु के मामले में उनकी सोच दूसरे की बेटी होने के कारण परिवर्तित हो जाती है. या यूँ कहूं कि एक माँ जो कि सास भी होती है, यह नहीं सोचती कि शादी के बाद उसकी अपनी भी एक गृहस्थी है. जिसके बहुत से दायित्व होते हैं और जिन्हें पूरा करने का एकमात्र फ़र्ज़ उसी का होता है .
दूसरी ओर जो उसकी पत्नी आती है, वह अपने भाई से तो यह चाहती है कि वह मम्मी-पापा का पूरा ख्याल रखे और भाई की पत्नी अर्थात उसकी भाभी भी मेरे मम्मी- पापा को अपने मम्मी-पापा की तरह समझें और उनकी सेवा सुश्रुषा में कोई कोताही न बरतें. मगर स्वयं अपने सास-ससुर को वह दर्जा नहीं दे पाती. ऐसे में माँ और पत्नी की वर्चस्व की जंग में पिसता है आदमी. जो करे तो बुरा और न करे तो बुरा, जिसे भुगतते हुए उसे कहना ही पड़ता है…
जब से हुई है शादी आंसू  बहा रहा हूँ,
मुसीबत गले पड़ी है उसको निभा रहा हूँ.
लेखक - उत्तम जैन (विद्रोही ) 

Thursday 21 September 2017

कर्म करने पर ही फल देगी सरकार जनता जनार्दन ‘भगवान’ है

हम आए दिन मोदी सरकार की उपलब्धि को इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर सुनते है ओर प्रिंट मीडिया मे पढ़ते भी है ! निसंदेह मोदी सरकार मे  आम नागरिक को  आज भी वह आशा है जब मोदी सरकार को पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने का मोका दिया ! साथ मे इतना विश्वास व्यक्त किया ! बहुत से फेसले मोदी सरकार ने अच्छे लिए ओर विकास के कार्य भी किए ! मगर कुछ ज्वलंत मुद्दे ऐसे भी जंहा सरकार चाहे कितने भी ढिंढोरे पीट  ले असफल ही हुई है ! देश की मोदी सरकार भले ही देश के विकास के बारे में सोचती हो, विदेश में नाम कमा रही हो, लेकिन ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर मोदी सरकार या कहें कि बीजेपी सरकार फेल होती दिखती है। सबसे ज्वलंत मुद्दा जो आम आदमी से जुड़ा है, वो है पेट्रोल डीज़ल के बढ़ते रेट का मुद्दा और किसानों की कर्जमाफी का मुद्दा। भले ही सरकार ने पेट्रोल-डीजल के रेट तय करने का अधिकार प्राइवेट कंपनी को दे दिया हो, लेकिन उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि इसी पेट्रोल-डीज़ल से आम आदमी की कमाई सीधे जुड़ती है। महंगाई सीधे जुड़ती है, लेकिन सच तो ये है कि पेट्रोल और डीज़ल पर लगाम लगा पाने में मोदी सरकार विफल हुई है। ये ऐसी आलोचनाएं हैं जो करनी पड़ेंगी, क्योंकि शासन जब आम जनता के हित से अहित में बदल रहा हो तो उसे आइना दिखाना ज़रूरी है और उसी के लिए मेरा ये आज का लेख है।

सवाल ये है कि पेट्रोल और डीज़ल पर रेट कम होने के बजाए बढ़ क्यों रहे हैं। देश में पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें अपने 3 साल के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गई हैं, जिससे उपभोक्ता चिंतित है। लोग सोच रहे हैं कि पेट्रोल और डीज़ल के अच्छे दिन कब आएंगे। लोगों का मानना है कि जब इन उत्पादों पर लगने वाले करों में बार बार फेरबदल किया जा रहा हो, तो बाज़ार आधारित कीमतों का कोई मतलब नहीं रह जाता और वो भी तब जब कच्चे तेल के दाम लगातार गिर रहे हैं। तो फिर देश में पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें क्यों बढ़ रही हैं, ये बड़ा सवाल है।

2014 के मई में कच्चे तेल की कीमत 107 डॉलर प्रति बैरल थी उस वक्त अभी से सस्ता पेट्रोल मिल रहा था। ये सच है कि पिछले तीन महीनों में कच्चे तेल की कीमतें 45.60 रुपये प्रति बैरल से लेकर अभी तक 18 फीसदी तक बढ़ी है, जिसका नतीजा है कि दिल्ली में पेट्रोल की कीमत 65.40 रुपये से बढ़कर 70.39 रुपये तक पहुंच गई है।

एसोचैम के नोट में भी कहा गया है कि जब कच्चे तेल की कीमत 107 डॉलर प्रति बैरल थी, तो देश में ये 71.51 रुपये लीटर बिक रहे थे। अब जब घटकर 53.88 डॉलर प्रति बैरल आ गया है, तो उपभोक्ता तो ये पूछेंगे ही कि अगर बाज़ार से कीमतें निर्धारित होती हैं तो इसे 40 रुपये प्रति लीटर बिकना चाहिए। मगर ऐसा नहीं है। हालांकि, पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान कह रहे हैं कि दिवाली तक पेट्रोल डीज़ल के दाम घट सकते हैं, तो अभी तक साहब क्यों सोते रहे, क्योंकि पिछले तीन साल में कच्चे तेल के रेट घटकर आधे रह गए हैं और पेट्रोल डीज़ल के रेट बढ़ते ही चले गए।

उसमें भी नए नए केंद्रीय पर्यटन राज्य मंत्री बने अल्फोंस कनन्थानम अपने बयान से जले पर नमक छिड़कने का काम कर रहे हैं। साहब का कहना है कि पेट्रोल-डीज़ल खरीदने वाले लोग भूखे रहने वाले नहीं है, तो साहब ये बात आप न बोलें तो ही अच्छा है। क्योंकि आपको तो पेट्रोल डीज़ल सरकारी खर्चे पर मिल जाता है और रही बात आम आदमी की वो तो गरीब है और नेताओं के बदलते चेहरे देखकर थोड़ा गुस्सा और थोड़ा संतोष कर लेता है। और करे भी क्यों न, क्योंकि 5 साल का वक्त उसने पूरा दे दिया है।

अब किसानों का ही हाल देख लीजिए। उत्तर प्रदेश में किसानों के साथ बड़ा ही भयंकर छल हुआ है। योगी सरकार किसानों के कर्जमाफ करने का बड़ा वादा लेकर आई थी, लेकिन किसानों के कर्ज माफ जब 5 पैसे से लेकर 10 रुपये तक हुए तो देखकर बडा आश्चर्य हुआ। मन में विचार आया कि किसान क्या इतने गरीब हैं, जो 5 पैसे से लेकर 10 रुपये तक नहीं चुका सकते। वाकई बड़ी ही हैरान करने वाली बात है। जब सरकार ने कर्ज माफ ही किया है और उसकी तय सीमा एक लाख रुपये रखी है, तो साहब मेरी तो ये दरख्वास्त है कि कुछ हज़ार रुपये नहीं देखने चाहिए। मगर पता नहीं सरकार और उनकी बैंक कौन सा बीजगणित का फॉर्मूला लगा रही है, जिससे किसानों की कर्जमाफी 5 पैसे तक भी बैठ जाती है।

सोचो जिस किसान का कर्ज अभी 10 हज़ार रुपये बचा हो और उसने बड़ी ही ईमानदारी से कर्ज चुकाया हो औऱ सरकार के कर्जमाफी के ऐलान के बाद उसने सपना देखा हो और वो उसके सामने 5 पैसे के रूप में आए, तो क्या आपको वो दोबारा वोट देगा। शायद नहीं, क्योंकि भगवान भी फल उसको देते हैं जो सकारात्मक कर्म करता है और नेताओं के लिए जनता भगवान समान है, जो सरकार कर्म नहीं करती उसे जनता फल नहीं देती। ध्यान देने वाली बात है, इसलिए सोचिए समझिए फिर चिंतन करिए और जनता के हित के बारे में ही सोचिए और उसमें भी अच्छा तब रहेगा जब खुद जनता बनकर सोचिए।
मे तो राजनीति से सदेव दूर रहने वाला इंसान हु न मुझे किसी राजनीतिक पार्टी से मोह है न मुझे किसी राजनीतिक अखाड़े मे अपना भाग्य आजमाना है ! खरी खरी बात लिखी है अब कुछ भक्त मेरे विचारो से सहमत न हो मे इसका शर्तिया समाधान तो दे नही सकता 
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही     

Wednesday 13 September 2017

हिंदी दिवस मनाना कितना सार्थक हुआ -- उत्तम जैन (विद्रोही )


कल  हिंदी दिवस मनाया गया है और हर जगह बड़े-बड़े शहरों, जिलों आदि में गोष्ठी, सभाएं, चर्चाएँ आदि हुई होगी. क्यूंकि हमारे यहाँ तो जिस दिन जो भी दिवस पड़ता है उस दिन उसको बखूबी याद किया जाता है. हिंदी से बना हिंदुस्तान और हिन्दुस्तानी होने के नाते हमारा ये फ़र्ज़ बनता की हिंदी भाषा को हम सभी बढ़ावा दें, जिससे हम आगे के लिए अपने कठिन रास्ते को आसन कर लें. हिंदी से ही हम सभी की पहचान है ! 

हमने औपचारिकता को ओढऩे-बिछाने का संस्कार विकसित कर लिया है। यही कारण है कि जब कभी हमारे सामने असफलताओं का परिदृश्य होता है तो हम संकल्प लेकर असफलता को सफलता में परिवर्तित करने के लिए उत्सवी औपचारिकता का निर्वाह करने लगते हैं। हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाना इसी प्रकार की एक औपचारिकता कही जा सकती है।  हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प हो, हिंदी में ही कार्य करने का प्रण हो, हिंदी माध्यम से ही नई पीढ़ी को शिक्षित करने की इच्छा हो या हमारी तकनीकी पढ़ाई की पुस्तकों को हिंदी में निर्मित करने की आकांक्षा हो, मगर ये सब हमारे लिए अब औपचारिक और तथाकथित प्रतिबद्धताएं मात्र रह गई हैं। हमें इस कठोर सत्य को सहजता से हिंदी दिवस पर स्वीकार करना चाहिए। हम यदि अपने आपसे प्रश्न करें तो पाएंगे कि हमने अपनी मातृभाषा के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जो गर्व करने योग्य हो। 

शिक्षा के क्षेत्र में किसी विदेशी भाषा पर निर्भरता तो हमारे देश के लिए और भी घातक है क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली पहले से तथ्यों को समझने और उन्हें अपने परिवेश से जोडऩे के लिए प्रेरित करने की बजाय केवल उन्हें रट कर परीक्षा में उत्तीर्ण मात्र कर देने के दोष से ग्रसित है। ऐसी स्थिति में शिक्षा के माध्यम के रूप में किसी ऐसी विदेशी भाषा का प्रयोग, जिसके जानकारों की संख्या इस देश में बराबर कम होती जा रही है, हमारी शिक्षा के इस दोष को जानबूझ कर बढ़ावा देने और इस तरह हमारी शिक्षा को और अधिक निरर्थक बनाने का ही काम कर सकता है। 

आज हिंदी के संबंध में वैधानिक स्थिति यह है कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी तथा अंग्रेजी भारत की राजभाषाएं हैं लेकिन हिंदी को कभी भी राष्ट्रभाषा के रूप में उस प्रकार घोषित नहीं किया गया है जैसे कि राष्ट्रगान या राष्ट्रध्वज को। राजभाषा अधिनियम 1963 के प्रावधानों और नियमों का यदि अवलोकन किया जाए तो सामने  आता है कि जब तक संविधान में संशोधन नहीं होता, तब तक वर्ष 1963 में संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित प्रस्ताव में अंर्तनहित उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। वर्ष 1967 में जो संविधान संशोधन हुआ उसके कारण अंग्रेजी की अधिकारिता कायम है। यह स्पष्ट है कि इस अधिकारिता को कभी समाप्त करने का सार्थक प्रयास समेकित रूप से नहीं हुआ। 

अंग्रेजी बोलने वाला सामान्यत: अपना संबंध जहां सामाजिक, आर्थिक या बौद्धिक रूप से अधिक संपन्न और ऊंचे लोगों के साथ जोडऩा चाहता है, वहीं वह पिछड़े और गरीब लोगों से अपना अलगाव भी प्रदर्शित करना चाहता है। अंग्रेजी के जानकार के सामने अपनी भाषा बोलने में जैसे उसे यह सोच कर संकोच होता है कि उससे बोलने वाले उसके रिश्तेदार गरीब और पिछड़े लोग हैं। विडंबना यह है कि ये गरीब और पिछड़े लोग अपनी प्रगति के लिए आदर और उम्मीद से अपने जिस संबंधी की ओर देखते हैं, उसी को वे अंग्रेजी के मोह से बंधा पाते हैं। 

आजादी के बाद जब अंग्रेजी विरोधी आंदोलन पूरे जोर-शोर से चला था, तब अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई थी। उसे पढ़ाना वैकल्पिक हो गया था। परिणाम यह हुआ कि लोगों में अंग्रेजी ज्ञान प्राय: कम ही रहा। दूसरी ओर अंग्रेजी पर अवलंबित करने की आदत बढ़ती चली गई। शासकीय कार्यालयों में अंग्रेजी की अपरिहार्यता न केवल बनी रही बल्कि बढ़ी भी। परिणाम यह हुआ कि अनेक बहुत पिछड़ गए। सरकारी तंत्र में वे उपेक्षित हो गए। अंग्रेजी का ज्ञान न होने के कारण वे उपहास का पात्र भी बने, कार्यालय में भी और अपने घर में भी क्योंकि बच्चे तो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों, कॉन्वैंट में पढ़ते थे। यह परिदृश्य आज भी है किंतु राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण तंत्र में बार-बार हिंदी के प्रयोग के लिए परिपत्र जारी किए जाते हैं, निर्देश प्रसारित किए जाते हैं लेकिन आज भी अधिकारियों का एक वर्ग हिंदी में टिप्पणी लिखना या आदेश अंकित करना उचित नहीं मानता।  

स्वाधीनता आंदोलन के समय जिस तरह स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए विदेशी वस्त्रों की होली जलाना आवश्यक समझा गया था, उसी तरह लगता है आज एक राष्ट्रीय संपर्क भाषा की उन्नति के लिए अंग्रेजी के प्रभाव को कम करना आवश्यक हो गया है। भारत में अंग्रेजी के प्रयोग को समाप्त किए बिना राष्ट्रीय सम्पर्क की किसी भारतीय भाषा में नए शब्दों और नई अभिव्यक्तियों का निर्माण यथेष्ठ मात्र में कभी नहीं हो सकेगा। 

हालांकि इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि हिंदी के प्रति हमारी अब तक की उपेक्षा और लापरवाही के बावजूद इसका प्रचार-प्रसार निरंतर बढ़ता ही गया है। इसका श्रेय चाहे गांधी जी को जाए, सिनेमा को जाए, पर्यटन को जाए या हिंदी प्रचार से जुड़े विद्वानों और संगठनों को, हमें यह मानना ही पड़ेगा कि आज भारत के किसी भी राज्य में हिंदी समझने वालों की संख्या पहले के मुकाबले ज्यादा है और वहां अंग्रेजी का गैर जानकार व्यक्ति संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का ही सहारा लेता है। 

आवश्यकता इस बात की है कि अब तक हिंदी का जो प्रचार-प्रसार अचेतन और अनियोजित रूप से हुआ है, उसे आने वाले समय में हिंदी प्रेमी सचेतन और सुनियोजित रूप से करने का बीड़ा उठाएं। ओर हिन्दी को अपनाए अपने आने वाली पीढ़ी को आप निसंकोच अँग्रेजी स्कूल मे पढ़ाये मगर उन्हे इतना काबिल जरूर बनाए की अपना अधिकतर कार्य हिन्दी मे करे ! हिन्दी अच्छे से बोल सके , पढ़ सके ओर लिख सके !
जय माँ भारती ------
लेखक – उत्तम जैन ( विद्रोही )  

आजादी क्या है

आजादी क्या है...... 






















आजाद भारत आज भी गुलाम है। अंग्रेजों के चले जाने से हमें सिर्फ संवैधानिक आजादी मिली है। क्या हम सांस्कृतिकसामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से आजाद हैंसंविधान कहता है कि हां’ आजाद हैंलेकिन वास्तविकता क्या कहती है?चंद दिनो पूर्व ही हम जैन लोगो सामाजिक आजादी पर कुठाराघात हुआ है! हमारी सामाजिक व धार्मिक आजादी संथारा पर प्रतिबंध फिर हम आजाद केसे हुए ?
  हम बात अगर देश की आज़ादी की करें तो बस मन में टीस के अलावा कुछ नहीं होती है. भाइयो बहनो
हम तो अब भी स्वतंत्र नहीं है और तब भी नहीं थे. पहले फिरंगियों के ग़ुलाम थे और अब इन कमीने नेताओं के! चारो ओर ज़रा आँखें बन्द करके नज़र दौड़ाईयेखोल के नहीं! आप पाएंगे कि भारत में अधिकतम सिर्फ़ 5% लोग ही आज़ादी ख़ास कर आर्थिक और सामजिक आज़ादी का फायेदा उठा रहे हैंउनमें है हमारे नेताबॉलीवुड सितारे और धर्म की आर्थिक दुकाने चलाने वाले ! बाक़ी सब दर्शक की भांति उन्हें टीवी पर देखते हैं और अपना सब कुछ में से बहुत कुछ गंवा कर उन जैसा बनने की कोशिश करते हैं या फ़िर बाक़ी सब की हालत सिर्फ़ क़व्वाली गाने वाले के पीछे बैठे ताली बजाने वालों से बढ़कर कुछ नहीं होती है!!!जब मैं (विद्रोही )आज़ादी के बारे में सोचता हूँ तो मैं पूरी सृष्टि के हर-एक मानव कि आज़ादी के बारे में सोचता हूँमानव ही क्या पूरी सृष्टि में हर-एक के लिए! यहाँ हम विस्तार में आगे जाने से पहले कुछ व्यक्तिगत विचार आप तक पहुँचाना चाहूँगा. कुल मिला कर एक वाक्य में कहें तो पूरी मानवजाति की में जब एकता हो तो यह वास्तविक आज़ादी होगी! परन्तु अगले ही क्षण एक सवाल मन में आता है कि क्या यह संभव है?आज़ादी तो तब ही होगी जब हम देश केसमाज के ग़लत तत्वों के उत्पीडन से आज़ाद न हो जाएँआज़ादी तो तब ही होगी जब अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी हो (अभिव्यक्ति का मतलब यह नहीं किसी को गाली देने का मन हो तो बक दियाअपनी सार्थक और सत्य बातें कहने की आज़ादी अभिव्यक्ति की असल आज़ादी कहलाती है)आज़ादी तो तब ही होगी जब हिंसा का दुरुपयोग न होगाआज़ादी तो तब ही होगी जब देश के हर एक व्यक्ति की सेहत की सुरक्षा के लिए एक आम और सशक्त योजना हो और उस पर इमानदारी से कार्यान्वयन होआज़ादी तो तब ही होगी जब अपनी शक्तियों का ग़लत इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति का खात्मा होगा।क्या हम दूसरों की मदद के लिए आज़ाद हैंआपका जवाब होगा "हाँ" मेरा इसके विलोम जवाब है "नहीं". आईये देखे कैसेएक साइकिल सवार को एक चार पहिया वाहन रौंद कर चल देता है और वह तल्पने लगता है! इमानदारी से जवाब दीजियेगा... क्या आप उसकी मदद के लिए आगे बढ़ेंगेक्या आप उसकी मदद के लिए आगे बढ़ने से पहले ये नहीं सोचते कि जाने दो भाई कौन कानूनी पछडे में पड़ेगाकौन पुलिस वुलिस के चक्कर में पड़ेगाअब आपका जवाब क्या है??? ये कैसा क़ानून ये कैसी आज़ादी कि अगर हम किसी की दिल से अंतर्मन से मदद करना चाहें तो भी न कर सकें !मैं तो उसी दिन आज़ादी का असल मायने बता पाने में सक्षम हो सकूँगा जब इस देश बल्कि पूरी दुनियाँ में अमीर-ग़रीब का फासला ख़त्म होगाउसी दिन आज़ादी का असल मायने बता पाने में सक्षम हो सकूँगा जब गोरे-काले का ज़मीनी स्तर परदिल के स्तर पर फासला खात्मा होगाउसी दिन आज़ादी का असल मायने बता पाने में सक्षम हो सकूँगा जब ऊँच ज़ात-नीच ज़ात का वाहियात तंत्र ख़त्म होगाउसी दिन आज़ादी का असल मायने बता पाने में सक्षम हो सकूँगा जब एक बलात्कारी को मौत की सज़ा देने का प्रावधान  हो सके!अब बताईये क्या हम वाक़ई सक्षम है आज़ादी के मायने अपनी ज़िंदगी में बताने के लिए !!!???
उत्तम जैन (विद्रोही )

Monday 11 September 2017

साहित्य- सन्मान व आलोचक

बहुत बार मे जब कुछ लिखने की कोशिस करता हु ! अपने विचारो को संप्रेषित करता हु ! कुछ मित्र / पाठक / साहित्यिक मित्र - मेरा मार्गदर्शन करते है तो कुछ साहित्यकार मित्रों द्वारा आलोचना करना ही मुख्य ध्येय होता है ! लेखन मे त्रुटि रहना संभव है एक अच्छा पाठक या साहित्य प्रेमी वही होता है जो लेखक का ध्यान उस त्रुटि की ओर दिलाये न की आलोचक बनकर टिप्पणी करे ! आज बहुत से ऐसे साहित्यकार /रचनाकर का हमसे सामना होता है जो स्वयं को बहुत बड़ा रचनाकार/ लेखक समझने लगता है ! एक कटु सत्य है हिन्दी साहित्य मे कभी  कोई परिपूर्ण नही होता इसकी जितनी गहराई मे हम जाएंगे हर पल कुछ नया सीखने को मिलेगा     प्रत्येक रचनाकार का अपना लक्ष्य होता है। यश की प्राप्ति किसी भी साहित्यकार का लक्ष्य हो सकता है, परंतु केवल यश प्राप्ति ही साहित्य का उद्देश्य नहीं है  आज  देखें तो बहुत सारे साहित्यकारों ने अपनी अभिव्यक्ति की लालसा को जीवित रखने के लिए भी साहित्य की रचना की। यश की प्राप्ति कोई बुरी बात नहीं है, किन्तु अपने साहित्य में सामाजिकता को बनाए रखना बहुत आवश्यक है। जब उस लेखक को कोई साहित्य मंच सन्मान प्रदान करता है तो उभरते लेखक के लिए बहुत बड़ा सन्मान होता है ओर उसे यह सन्मान कुछ नया लिखने को प्रेरित करता है !   लोकप्रियता अपराध नहीं है, लेकिन लोकप्रिय होने के लिए श्रम करना होता है  ! साहित्यकार कोई भी हो उसकी इच्छा यह हमेशा रहती  है कि जो उसके द्वारा रचा जा रहा है उसका एक पाठक वर्ग हो और उसका मूल्यांकन भी हो। अपने लिखे के लिए पाठको  की इच्छा रखना कुछ गलत भी नहीं है। साहित्य वही उत्तम होता है जो अधिक-से अधिक लोगों तक पहुंचता है। ठहरा हुआ जल जैसे सड़ जाता है, वैसे ही साहित्य का संचयन उसकी उपयोगिता को खत्म कर देता है। अच्छे साहित्य का प्रयोजन ही उसके विस्तार से पूरा होता है, वरना लेखनी का कुछ भी अर्थ नहीं।  साहित्यकार चाहे कितना भी अंतर्मुखी हो उसका साहित्य विस्तार मांगता है ! साहित्यकार की रचना / विचार/  पाठक (या श्रोता) की अपेक्षा रखती है। एक जनता की अपेक्षा रखती है। उससे सम्मानित होकर, शाश्वत होकर रूप ग्रहण करने की आकांक्षा रखती है।  साहित्य का प्रयोजन मात्र यश नहीं है, बल्कि उसके साथ अपने विचारों और भावनाओं का विस्तार भी है। साहित्य का पहला प्रयोजन समाज का विकास और उन्नयन ही है। अर्थ और यश की प्राप्ति तो मनुष्य की सहज और स्वाभाविक क्रिया है। अगर साहित्य किसी की जीविका का आधार बने तो भी कुछ बुरा नहीं है, परंतु धन और यश के लिए साहित्य की बुनियादी प्रवृत्तियों से समझौता करना साहित्य का सच्चा प्रयोजन नहीं हो सकता है।  --उत्तम जैन (विद्रोही )

Sunday 10 September 2017

हमारे बच्चे कितने सुरक्षित---विचारणीय विषय

अभी अभी एक प्रद्युम्न हत्या का मामला हमे हर टीवी चेनल व समाचार पत्र मे पढ़ने को मिल रहा है मे इसकी निंदा करते हुए अपने विचार संप्रेषित कर रहा हु !
घटना – १. गुरुग्राम के नामी रयान इंटरनेशनल स्कूल में दूसरी क्लास में पढ़ने वाले 7 साल के बच्चे प्रद्युम्न का शव वॉशरूम में मिला है. शव के पास से चाकू बरामद हुआ है. बच्चे की गर्दन और शरीर के अन्य हिस्सों पर चाकू के निशान मिले हैं. हालाँकि घटना के बाद स्कूल के ही बस के कंडक्टर को आरोपी के रूप में गिरफ्तार कर पूछताछ की जा रही है. कंडक्टर ने अपना गुनाह भी कबूल कर लिया है.साथ मे स्कूल के प्रबन्धक को भी गिरफ्तार कर लिया बस के कंडक्टर अनुसार वह प्रद्युम्न के साथ अप्राकृतिक यौनाचार करना चाहता था और असफल रहने पर चाकू से उसकी गर्दन पर वार कर दिया और प्रद्युम्न की मौत हो गयी. स्कूल के प्रिंसिपल को तत्काल सस्पेंड कर दिया गया है. पर पूरा मामला संदिघ्ध लग रहा है और स्कूल की लापरवाही साफ़ झलक रही है. बाद में यह भी पता चला है कि प्रद्युम्न अभी अपने क्लास में आया भी नहीं था. उसकी सहपाठी बच्ची से प्रद्युम्न का बैग माँगा गया और उससे उसकी डायरी निकाली गयी. उसके स्कूल बैग और पानी के बोतल को जिसमे खून के निसान थे साफ़ किया गया. चाकू जिससे हत्या की गयी उसे भी साफ़ किया गया. बाथरूम के फर्श को साफ़ किया गया, यानी हत्या के निशान को मिटाने की कोशिश की गयी. यह सब मामले को और ज्यादा संदिघ्ध बनाता है. स्कूल प्रशासन और स्थानीय प्रशासन सभी शक के घेरे में हैं. जबकि मुख्य मंत्री मनोहर लाल खट्टर न्याय की बात करते हैं. खट्टर साहब कितने विश्वसनीय हैं, यह हाल की बहुत सारी घटनाओं से साफ़ झलकता है, पर उन्हें तो ऊपर से वरदहस्त प्राप्त है. बच्चे का मामला है, कुछ दिन बाद अपने आप शांत हो जाएगा.
घटना -२. हैदराबाद के एक संभ्रांत इलाके के स्कूल में सात साल के छात्र ने अपने से एक साल छोटे लड़के की कथित तौर पर इस कदर पिटाई की कि वह अपनी जान से हाथ धो बैठा। पुलिस के द्वारा दी गई जानकारी में पहली क्लास के मोहम्मद इब्राहिम को 12 जुलाई के दिन तीसरी में पढ़ने वाले एक छात्र ने न सिर्फ पीटा बल्कि उसके पेट में चार बार इस कदर लात मारी की दो सर्जरी के बाद भी उसे बचाया नहीं जा सका। अस्पताल में भर्ती होने के चार दिन बाद भी इब्राहिम अपनी चोटों से उभर नहीं पाया और उसकी मौत हो गई।
घटना -३. पिछले साल दिल्ली के एक नामी स्कूल में 6 साल के बच्चे का शव वाटर टैंक में संदिग्ध हालत में मिला था. दिव्यांश नामक यह बच्चा रयान इंटरनेशनल स्कूल में पहली कक्षा का छात्र था. शनिवार को वह पोएम कॉम्पटिशन में भाग लेने स्कूल आया था. हैरानी की बात ये रही कि शव शनिवार दोपहर करीब सवा 12 बजे बरामद हुआ, जबकि पुलिस को इसकी जानकारी करीब 2 घंटे बाद दी गई. स्कूल पहुंचकर पुलिस ने जांच शुरू की तो पता चला कि दिव्यांश सांतवें पीरियड से क्लास से गायब हो गया था. स्कूल के पिछले हिस्से में एक वाटर पंप के टैंक में उसका शव मिला. जांच रिपोर्ट में स्कूल को लापरवाह और सबसे बड़ा जिम्मेदार बताया गया था. मामले में प्रिंसिपल से लेकर स्कूल मैनेजमेंट तक पर कार्रवाई की सिफारिश की गई थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि स्कूल अपनी जिम्मेदारी निभाने में पूरी तरह से फेल रहा था. छुट्टी के दिन बच्चे को बुलाया था इसलिए एक्स्ट्रा ध्यान रखने की जरूरत थी जो नहीं हुआ.
घटना -४. गुड़गांव के रेयान इंटरनेशनल स्कूल में अभी सात वर्षीय प्रद्युम्न की रेप की कोशिश में नाकाम रहने के बाद हत्या किए जाने का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ कि राजधानी दिल्ली के शाहदरा स्थित गांधी नगर इलाके में एक प्राइवेट स्कूल के परिसर में एक चपरासी द्वारा पांच साल एक बालिका के साथ कथित रूप से बलात्कार किये जाने का मामला सामने आया है. शाहदरा की पुलिस उपायुक्त नुपूर प्रसाद ने बताया 40 वर्षीय आरोपी विकास को गिरफ्तार कर लिया गया है. वह इसी स्कूल में चपरासी का काम करता है. पुलिस ने बच्ची के बताए हुलिये और पहनावे के आधार पर दबिश देकर विकास को पकड़ा, जिसके बाद उसकी तस्वीर बच्ची को दिखाई गई. बच्ची ने उसे पहचान लिया. हालांकि देर रात जब आजतक ने आरोपी विकास से बात की तो उसने इनकार कर दिया. उसने कहा कि वह तो बच्ची को जानता तक नहीं. पुलिस ने जब विकास को गिरफ्तार किया तब वह शराब पिए हुए था. पूछने पर उसने कहा कि वह रोज शराब पीता है. उसने कहा कि उसे किसी चीज की जानकारी नहीं है. उसके कहे अनुसार वह पिछले कई सालों से बच्चों को स्कूल छोड़ रहा है लेकिन कभी किसी ने शिकायत नहीं की. वहीं पुलिस ने बताया कि विकास स्कूल में पिछले तीन वर्षों से काम कर रहा था. इससे पहले वह इसी स्कूल में सुरक्षा गार्ड के रूप में काम करता था. पुलिस ने बताया कि वह बच्ची को सुबह करीब 11 बजकर 45 मिनट पर एक खाली क्लासरूम में ले गया और उसके साथ बलात्कार करने के बाद उसे गंभीर नतीजे भुगतने की धमकी दी. यह मामला तब सामने आया जब लड़की ने अपनी मां से उसके गुप्तांग से खून आने और दर्द होने की शिकायत की. लड़की को एक अस्पताल ले जाया गया जहां मेडिकल टेस्ट के बाद बलात्कार की पुष्टि हुई. पुलिस के अनुसार, घटना के बाद सदमे में आई बच्ची को काउंसलिंग के लिए भेजा गया है. ऐसे में पुलिस ने इस मामले में तेजी से कार्रवाई करते हुए धारा 376 और पॉस्को के तहत मामला दर्ज कर आरोपी को गिरफ्तार कर लिया.
सवाल फिर यही उठता है कि उपर्युक्त सभी घटनाएँ हाल-फिलहाल की हैं और नामी-गिरामी स्कूलों की हैं, जहाँ की बिल्डिंग अच्छी होती हैं. ब्यवस्था अच्छी कही जाती है और इन सबके एवज में बच्चों के माता पिता से काफी ऊंची फीस वसूली जाती है और जिम्मेदारी के नाम पर …. कुछ नहीं. इन स्कूलों में प्रबंधन तो मोटी कमाई करता है और तगड़ी फीस लेता है सरकारी नियमो एक धतत्ता ओर  दूसरे तीसरे स्कूल भी खोलता चला जाता है पर अपने यहाँ के स्टाफों का खूब दोहन करता है. शिक्षक से लेकर तीसरे चौथे दर्जे के कर्मचारियों की न्युक्ति का पैमाना कितना सही होता है, यह नजदीक जाकर ही पता चलता है. मैं यह नहीं कहता कि सभी कर्मचारी या स्टाफ घटिया स्तर के होते हैं, पर कुछ तो ऐसे होते ही हैं जो अच्छे खासे स्कूल को बदनाम भी कर देते हैं. बहरहाल जिम्मेदारी तो स्कूल की बनती ही है. साथ ही स्थानीय प्रशासन और सरकार की भी जिम्मेदारी होती है कि इन सभी शिक्षण संस्थाओं पर अंकुश रक्खे और बीच-बीच में औचक निरीक्षण कर जायजा लेती रहे.! 
पिछले वर्ष सूरत के एक जाने माने स्कूल की एक शिकायत मेरे पास आई उस स्कूल द्वारा नियुक्त ओर स्कूल द्वारा स्कूल बस व स्कूल वेन का ठेका स्कूल द्वारा दिया गया वेन ड्राइवर एक भोली व मासूम लड़की को बरगला कर शादी करने का झांसा दे रहा था ! मेरे पत्रकार होने के नाते लड़की के पिता ने मुझसे संपर्क किया मे व मेरे समाचार पत्र के प्रबंध संपादक स्कूल मे गए प्रिंसिपल से बात भी की मगर प्रिंसिपल ने मुह मोड लिया की हमारी कोई ज़िम्मेदारी नही है जबकि प्रबंधन से बात करने की बहुत कोशिस की मगर प्रबंधन बात करने को तेयार नही हुआ ! हुआ यही की वें ड्राइवर अपने मिशन मे सफल हो गया ! ओर लड़की को भगाकर ले गया !    
विद्यालय विद्या का मंदिर होता है जिसमे बच्चे हर प्रकार से विकसित होते हैं. इन विद्यालयों में बच्चे पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ अनुशासन, खेलकूद, नैतिक शिक्षा और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी भाग लेकर एक अच्छे नागरिक बनते हैं. एक अच्छे नागरिक की आधारशिला इन विद्यालयों में ही रखी जाती है. पर इसी समाज के कुटिल और क्रूर व्यक्ति बच्चों के साथ शर्मनाक हरकत कर स्कूल को बदनाम तो करते ही हैं, बाकी बच्चों पर भी इसका दुष्प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है. ऐसे ही आजकल बच्चे मोबाइल और इन्टरनेट के चलते बहुत हद तक बर्बाद हो रहे हैं. ऊपर से कुछ कातिल शातिर गेम भी काफी सारे बच्चों को आत्महत्या करने पर मजबूर करने लगे हैं.! बच्चों के लिए माँ की गोद के बाद अपना घर और उसके बाद पाठशाला ही सुरक्षित और संरक्षित जगह है. ऐसे में हम सबको, अभिभावकों को, विद्यालय प्रबंधकों को, बहुत हद तक सावधान रहने की जरूरत है. क्योंकि यही बच्चे आगे चलकर हमारे और हमारे देश का भविष्य बननेवाले हैं. हम सभी नागरिकों का कर्तव्य है कि इन बच्चों को सही माहौल दिया जाय ताकि ये एक होनहार योग्य नागरिक बने. क्योंकि गीता इसमें, बाइबिल इसमें, इसमें है कुरान, बोलो बच्चा है महान, जग में बच्चा है महान! बच्चे में है भगवान! बोलो बच्चा है महान! .....
मगर आज सरस्वती मंदिर सिर्फ ओर सिर्फ रुपए के पीछे भाग रहा है जहा शिक्षको का भी शोषण हो रहा है व बच्चो का भी शोषण हो रहा है हमे इस ओर ध्यान देना होगा !
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )  

Thursday 7 September 2017

लेखक की हत्या पर राजनीति ओर मीडिया की चुप्पी

मित्रों कन्नड़ भाषा की “लंकेश पत्रिका” की सम्पादक और लेखक गौरी लंकेश की हत्या लोकतन्त्र की हत्या है ! एक वेचारिक स्वतन्त्रता की हत्या है ! न जाने कब किस लेखक या पत्रकार  की ओर हत्या कर दी जाए  आज लेखक गौरी लंकेश मौन है आज उनका ट्विटर हेंडल भी अनाथ सा दिखाई दे रहा है. ये सच है कि गौरी राइट विंग के खिलाफ थीं. पर वो एक ऐसी इंसान थीं, जिन्होंने वाकई कोशिश की थी कि लोगों को समझाया जा सके ! सत्य क्या है हत्या केसे क्यू ओर किसने करायी सही जानकारी शायद ही बाहर आए मगर एक लेखक व पत्रकार की हत्या निंदनीय है     जिसने गोली चलाई शायद गौरी की बात उसकी समझ से परे रही होगी! आज हम उस देश के वासी है जिसे लोकतन्त्र का दर्जा प्राप्त है ! हमे अपने विचारो को स्वतन्त्रता से रखने का पूर्ण अधिकार है  ये कोई पहला मौका नहीं है कि जब किसी एक विचारधारा के मानने वाले को मौत के नींद सुला दिया गया हो. नरेंद्र दाभोलकर की  2013 में पुणे में हत्या कर दी गयी थी. गोविंद पानसरे को 2015 में कोल्हापुर में और उसी साल एमएम कलबुर्गी को धारवाड़ में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी.    ये सब ऐसे नाम है जो आज सबके रटे रटाये हो गये लेकिन कुछ नाम और भी है जो छुपे रह गये. जिनकी विगत वर्षो में हत्या हुई, अकेले बिहार ही में हिन्दी दैनिक के पत्रकार ब्रजकिशोर ब्रजेश की बदमाशों ने गोली मार कर हत्या कर दी. इससे पूर्व भी सीवान में दैनिक हिंदुस्तान के पत्रकार राजदेव रंजन और सासाराम में धर्मेंद्र सिंह की हत्या की जा चुकी है. पिछली सरकार में उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार को कथित रूप से जलाकर मार डालने के आरोप में पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री के खिलाफ मामला दर्ज हुआ था. कहा जाता है कि कथित रूप से फेसबुक पर मंत्री के खिलाफ लिखने के कारण पत्रकार जगेंद्र सिंह को जान गवानी पड़ी.
गौरी लंकेश की हत्या मंगलवार आधी रात को हुई लेकिन उसकी हत्या किसने की यह विपक्ष को सूरज उदय होने के साथ ही पता चल गया था. लेकिन बाकि के सभी पत्रकारों की हत्या का राज आजतक दफन है “1992 के बाद से भारत में 27 ऐसे मामले दर्ज हुए हैं जब पत्रकारों का उनके काम के सिलसिले में कत्ल किया गया. लेकिन किसी एक भी मामले में आरोपियों को सजा नहीं हो सकी है.”
गौरी लंकेश की हत्या का शोक सन्देश उसी तरह लिखा गया,  जिस तरह जितना जल्दी लिखा गया और राजनेतिक लोग उसकी हत्या का कारण गिनाने बैठ गये रातों-रात बैनर पोस्टर छप जाना मुझे अजीब सा लगा सच कहूँ तो आज मुझे राजनीति एक बार फिर अमीर और लेखिका की हत्या पर संवेदना गरीब सी दिखाई दे रही है.
कोई इसे लोकतंत्र तो कोई भाषा की हत्या  बता रहा है, विपक्ष के बड़े नेता और दुसरे पाले के भावी प्रधानमंत्री ने तो यहाँ तक कहा कि जो सरकार के खिलाफ बोलेगा वो मारा जायेगा. मुझे नहीं पता ये दुआ है या बद्दुआ या कोई चेतावनी? पर इतना कह सकता हूँ एक साझा दुःख सिर्फ एक खास विचारधारा का राजनितिक दुःख बनकर रह गया या कहो जब तक इस निर्मम हत्या पर देश के लोगों  अन्तस् छलकता तब तक इस दुःख की राजनितिक बंदरबांट हो चुकी थी.
पुलिस का कहना है कि वह हत्यारों का पता नहीं कर पाई है. किसी ने उन्हें देखा नहीं. गौरी लंकेश के घर में घुसकर उनपर सात गोलियाँ दागकर वे चलते बने. अँधेरे में कहीं छिप गए. हाँ राजनेता जरुर इल्जाम एक दुसरे पर लगा रहे है यूँ कहिये इस दुखद अवसर पर अपनी राजनीतिक हैसियत दर्ज करा रहे है. लेकिन जब राजनीति हत्या की संवेदना का उत्सव वोटों के रूप मनाने लगें, जब धर्म और विचारधारा के नाम पर पिस्तौल निकलने लगे तो किसी लेखक या पत्रकार का मारा जाना सिर्फ वक्त की बात है.
बयानों की आंच पर गौरी के हत्या के कारणों की हांड़ी रख दी गयी है अभी आंच की राजनीति को ठंडा होने का इन्तजार करें जिस दिन केरल में संघ के कार्यकर्ताओं की हत्या का कारण पता चल जायेगा उस दिन इस हांड़ी का मुंह खोल कर देख लेना. कुछ कारण हाथ आ जाये तो मुझे भी दिखा देना उन खोलते सवालों के पानी से बहुत लोगों के चेहरे धोने है
साधारण घरों जब किसी घर में मौत होती है उस दिन घर का चूल्हा खामोश होता है अगले दिन उस पर चाय बनती है तीसरे दिन रुखी सुखी रोटी भी लोग खाते है वक्त के साथ गम ढीला होता है और उस चूल्हे पर पकवान भी बनते है.
लेकिन राजनितिक मौतों पर ऐसा नहीं होता यहाँ पहले दिन चूल्हे पर बयानों के पकवान बनते है और वक्त के साथ वो चूल्हा ठंडा हो जाता है. आज सबके पास गौरी लंकेश की हत्यारी खबर है पर कौन था पनसारे? कौन था दाभोलकर, कौन था कलबुर्गी, किसी को ज्ञात नहीं? यह याद रखना अभी भी जरूरी होगा कि यह सब मरना नहीं चाहते थे बोलते रहना चाहते थे लेकिन इन्हें चुप कर दिया गया. जिसने भी इन पर गोली चलाई वो नहीं जानता होगा कि उसने गोली देश की संस्कृति और विविधता पर चलाई है. आज वो सब चुप है बस हम बोल रहे है ! हम कर सकते है तो सिर्फ विरोध क्यू की आज हमारा अधिकार भी यही है ! मगर हमे हमारे कर्तव्य से मुह नही मोड़ना चाहिए हमे आवाज़ उठानी होगी ओर एक पत्रकार लेखक गौरी लंकेश को व उसके परिवार को न्याय दिलाना होगा !   

लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

Wednesday 6 September 2017

पर्यावरण का करना ख्याल

एक वृक्ष दस पुत्रो के समान होता है, अतः अगर हम एक वृक्ष काटते है तो हमे दस मनुष्यों की हत्या का पाप लगता है। इसलिए हमने वायु प्रदान करने वाले वृक्ष को नही काटना चाहिए। जल, थल और आकाश मिलकर पर्यावरण को बनाते हैं।
हमने अपनी सुविधा के लिए प्रकृति के इन वरदानों का दोहन किया, लेकिन भूल गए कि इसका क्या नतीजा होगा?

पर्यावरण विनाश के कुफलों से चिंतित  मनुष्य आज अपनी गलती सुधारने की कोशिश में है।  सृष्टि के निर्माण में प्रकृति की अहम भूमिका रही है। यहां हमने इतिहास के उन पन्नों को पलटने की कोशिश की है जिनके बारे में सुनने, पढ़ने या फिर सोचने के बाद शायद हमें समझ आ जाए। मे  आप का ध्यान उस दौर की और आकर्षित करना चाहता हु 
 जहां पर विशाल से विशाल जीवों ने प्रकृति के खिलाफ जाने की कोशिश की और अपना अश्तित्व ही खो दिया। देखा जाए तो सृष्टि का निर्माण प्रकृति के साथ ही हुआ है। इस दुनिया में सबसे पहले वनस्पितयां आई। जो जीवन का प्राथमिक भोजन बनी । उसके बाद अन्य जीवों ने अपनी जीवन प्रक्रिया शुरू की। माना जाता है कि मनुष्य की उत्पत्ति अन्य जानवरों के काफी समय बाद हुई है। 
अगर कहा जाए तो मनुष्य की उत्पत्ति के बाद से ही इस सृष्टि में आये दिन कोई न कोई बदलाव होते आ रहे हैं। मनुष्य ने अपने बुद्धी व विवेक के बल पर खुद को इतना विकसित कर लिया की और कोई भी जीव उससे ज्यादा विवेकशील नहीं है। यही कारण है कि दिन प्रतिदिन मनुष्य अपनी बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति की कुछ अनमोल धरोहरों को भेंट चढ़ाता जा रहा है। प्रकृति का वह आवरण जिससे हम घिरे हुए हैं, पर्यावरण कहलाता है। आज वही पर्यावरण प्रदूषण की चरम सीमा पर पहुंच चुका है। हर कोई किसी न किसी प्रकार से पर्यावरण को प्रदूषित करने का काम कर रहा है। 
जहां कल कारखानें लोगों को रोजगार दे रहे हैं। वहीं जलवायु प्रदूषण में अहम भूमिका भी निभा रहे हैं। कारखानों से निकलने वाला धुंआ हवा में कार्बनडाई आक्साइड की मात्रा को बढ़ा देता है जो कि एक प्राण घातक गैस है। इस गैस की वातावरण में अधिक मात्रा होने के कारण सांस लेने में घुटन महसूस होने लगती है। चीन और अमेरिका जैसे कई विकसित देशों के वातावरण में गैसिए संतुलन विगड़ने से लोगों को गैस मास्क लगाकर घूमना पड़ता है। 
अभी अपने देश में यह नौबत नहीं आयी है। लेकिन इस बात से भी मुंह नहीं फेरा जा सकता कि आने वाले भविष्य में हम भी उन्हीं देशों की तरह शुद्ध हवा के लिए गैस मास्क लगा कर घूमते नजर आएंगे।
          वृक्षों को कटने से रोको,और जीवन बन जाये वरदान।
                  वृक्षों का रोपण कर, बन जाओ तुम सबसे महान।।

धर्म का मर्म

धर्म का मर्म ---धर्म के विभिन्न विचारों पर चलकर हम धीरे-धीरे बड़े होते हैं। वहीं विचार हमारे मन में बस जाते हैं। लेकिन आजकल लगातार कई बार इसमें ह्रास देखा जा रहा है। हर व्यक्ति अपने धर्म को छोड़ कर दूसरे धर्म के प्रति अधिक आकर्षित होता है। पहले हमारे पूर्वजों ने जिन चीजों को दृष्टि में रखकर धर्म को महत्व दिया था, हम उससे बिल्कुल हटकर सोचते हैं। जैसा कि एक किसान का धर्म खेती करना है अगर उसी कार्य को वह निपुणता के साथ करे तो उसे उस कार्य में सफलता भी मिलेगी। हर व्यक्ति को अपने धर्म को समझना जरूरी होता है। अपने-अपनेे धर्म को समझकर उसी में रूचि के साथ कार्य करने से हमें सफलता जरूर मिल सकती है। साधारण तौर पर यह देखा गया है कि कई व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अपने धर्म और कर्म से अधिक दूसरों के धर्म और उनके कार्य लुभाते हैं। हम उनसे प्रेरित होकर वही करने बैठ जाते हैं। जबकि हमारी अपने धर्म के प्रति निष्ठा धीरे-धीरे कम होने लगती है और जिस कार्य को हम मन लगाकर करने बैठते हैं वही कार्य सुचारू रूप से कर भी पाते हैं। दूसरों के धर्म को अपमानित करना हमारा इरादा नहीं होना चाहिए। अपने धर्मपथ पर दृढ़ रहते हुए दूसरों के धर्म के प्रति समान सम्मान का भाव रखना चाहिये। देखा जाये तो जो व्यक्ति अपने धर्म का मर्म सही रूप से समझता है वही व्यक्ति दूसरों के धर्म के प्रति अपने दिल में समान सम्मान का भाव रख सकता है। कुछ अहंकारी व्यक्ति जिन्हें धर्मों, मर्यादाओं और संस्कारों के मोल का एहसास नहीं होता उनकी वजह से ही समाज में धर्म के नाम पर व्यभिचार व्याप्त होता है।
हम सभी धर्म रूपी शब्द में आस्था तो रखते है मगर धर्म का वास्तविक अर्थ उसका मर्म क्या है कभी समझने की कोशिश नही की मूल आज का विषय है - धर्म क्या है ? धर्म की क्या आवश्यकता है। (धर्म का मर्म) धर्म शब्द से क्या अभिप्राय है ? धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है। धृ का अर्थ है धारणा करना, संभाले रखना। धर्म की व्याख्या शास्त्रों में की गयी है ---
                        ‘परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम्’
अर्थात परोपकार करना ही पुण्य है और दूसरों को किसी भी भांति सताना और दुःखी करना पाप है। जो चीज सबको संभाले और मिलाए रखे-वही धर्म है। जिस बात से किसी को भी दुःख न पहुंचे वही धर्म है। धर्म के दस लक्षण है धैर्य, क्षमा, इन्द्रिय, दमन (निरहंकारिता), अस्तेय, पवित्रता, बुद्धि, विवेक, सत्य एवं अक्रोध।
हम सभी लोग अपने आपको धार्मिक कहलाना पसंद जरूर करते हैं, मगर अपनी आत्मा से ही कभी कभार पूछ लिया करें कि हम कितने धार्मिक हैं तो हमारी कलई अपने आप खुल जाएगी। धर्म-कर्म के नाम पर हम जो कुछ करते हैं उसका अधिकांश हिस्सा भगवान को रिझाने या दिखाने के लिए तो शायद ज्यादा कभी नहीं होता बल्कि लोक दिखाऊ संस्कृति का ही हिस्सा माना जा सकता है। हम जो कुछ साधना और धर्म-ध्यान, भजन-पूजन आदि करते हैं वह सब कुछ देवी या देवता के लिए करते हैं मगर प्रायः देखा यह गया है कि हम लोगों को देख कर अपने हाथ-होंठ और जीभ चलाते हैं। कोई हमें नहीं देख रहा हो तब कुछ भी नहीं करते या कि दूसरे-तीसरे विचारों में खोये रहते हैं अथवा अन्य कामों में मन लगाए रहते हैं। धर्म को हमने उपासना पद्धति ही मान लिया है जबकि धर्म का संबंध जीवनचर्या के व्यापक अनुशासन और वैश्विक सोच की उदारता से भरा है।   मन में राग द्वेष रख कर हम चले धर्म करने यह तो एक विडम्बना ही है ! धर्म हमें वसुधैव कुटुम्बकम् के सिदान्त को सिखाता है ! सच में देखा जाए तो  कहा भी गया है कि जो धर्म को धारण करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।कोई कितना ही साधन, भजन-पूजन, अनुष्ठान आदि कर ले, यज्ञ-यागादि, धार्मिक समारोहों आदि से लेकर मन्दिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा में लाखों-करोड़ो रुपयों का दान कर दे, इसका कोई मूल्य नहीं है, यदि यह पैसा पवित्र नहीं है।यह मेरा मानना है ! धर्मानुरागी माने या न माने मुझे उससे कोई वास्ता नही! क्यों की
दुर्भाग्य से आजकल धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें अधिकांश पैसा दूषित आ रहा है। और साधू संत व् बाबाओं ने भी धर्म के नाम पर गंदे और प्रदूषित पैसे को शुद्ध करने का ऎसा भ्रम बना रखा है कि धर्म और कालेधन, पापधन, दूषित धन सब कुछ एक दूसरे का पर्याय हो गया है। हम सभी लोगों को भ्रम है कि कितनी ही काली कमायी कर लें, रिश्वतखोर बने रहें, भ्रष्टाचार से धन जमा करते रहें, उसका थोड़ा सा अंश धार्मिक कार्यक्रमों, मन्दिरों और पूजा-पाठ या बाबाओं, साधू के इंगित अनुसार उनके चरणों में समर्पित कर देने से उनके पाप धुल जाएंगे और अनाचार, अनीति से धनार्जन का पाप समाप्त हो जाएगा। यही वजह है कि देश में हर तरफ धर्म के नाम पर गतिविधियों की हमेशा धूम मची रहती है, हर दिन कोई न कोई आयोजन होता रहता है, इसके बावजूद न शांति स्थापित हो पा रही है, न संतोष। प्राकृतिक, दैवीय और मानवीय आपदाओं का ग्राफ निरन्तर बढ़ता ही चला जा रहा है। कहीं भूकंप आ रहे हैं, भूस्खलन हो रहा है, कही बाढ़ सूखा और दूसरी सारी समस्याएं बढ़ती ही चली जा रही हैं। इन सभी का मूल कारण यही है कि धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें शुचिता समाप्त हो रही है, प्रदूषित और पाप की कमायी लग रही है। जो कर रहे हैं वे भी, और जो करवा रहे हैं उनका भी धर्म से कोई वास्ता नहीं है बल्कि इन लोगों ने धर्म के नाम पर धंधा ही चला रखा है।यही कारण है कि भगवान भी इन लोगों की उपेक्षा कर रहा है और हम सभी मूर्खों को भी उपेक्षित कर रखा है जिन्हें धर्म के मूल मर्म से कोई सरोकार नहीं है।धर्म सदाचार, मानवीय मूल्यों, आदर्शाें और विश्व मंगल के लिए जीने का दूसरा नाम है। असली धर्म वही है जिसे देख, सुन और अनुभव कर हर किसी को प्रसन्नता का अनुभव हो, चाहे वह मनुष्य और, दूसरे कोई से प्राणी या जड़-चेतन जगत ही क्यों न हो। धर्म वह छत है जिसके नीचे कोई भेदभाव नहीं है बल्कि पूरी सृष्टि का भरण-पोषण और रक्षण करता है। हम सभी को चाहिए कि धर्म के मूल मर्म को आत्मसात करें और मानवीय मूल्यों से भरे-पूरे उन विचारों और कर्मों को अपनाएं जहाँ हर कोई एक-दूसरे से प्रसन्नता का अनुभव करे, मनुष्य-मनुष्य और जगत के हर प्राणी के बीच प्रेम, सात्विकता और पारस्परिक विकास की भावनाओं से भरा माहौल हो।
                                  -- किसी कवि ने धर्म के मर्म पर बहुत खूब लिखा ----
                                      आड़ लेकर धर्म की, सत्ता सुख की छांव
                                     अस्त्र लिए कोई हाथ में, कोई घुंघरू बांधे पांव !
                                     छुरी छुपी है हाथ में, मुख में लिए हैं राम
                                     कहीं धर्म का नाम ले, करते कत्लेआम!
                                    भोला बचपन विश्व में, भाले दिए हैं हाथ
                                   भरी जवानी आज देखो, छोड़ रहे हैं साथ!
                                   कराह रही इंसानियत, चीत्कार चहुं ओर
                                   धर्म हमारे मौन से, सत्ता का नहीं ठौर!!
                                  आज धर्म के मर्म को, समझ रहा है कौन
                                  कांव-कांव कौवा करे, कोयल बैठी मौन !!
                                  हम सबको दो हाथ मिले, करने को सद्काम
                                  एक हाथ से जेब भरी, एक हाथ में जाम !!
                                 नाम नहीं ले राम का, तब भी होंगे काम
                                रावण की गर राह चला, तब बिगड़ेंगे काम
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

Saturday 2 September 2017

इलेक्ट्रोनिक मीडिया का जैन संत को बदनाम करने की साजिश

आज एक न्यूज़ चेनल पर सुबह सुबह 25 बड़ी खबरों मे एक खबर सुनी पाँच मिनिट यह समाचार सुन दंग रह गया  एक दिगंबर आचार्य सूर्यसागर  पर एक आक्षेप लगाया आचार्य सूर्यसागर जी ने पूर्व मे  एक राजनीतिक पार्टी द्वारा पर्युषन पर्व पर जैन मंदिर के सामने मांस पकाया गया उसके विरोध स्वरूप के वीडियो सोशल मीडिया के माध्यम से विरोध स्वरूप प्रसारित किया था ! कडवे व स्पष्ट बोलने वाले दिगंबर संत की यह वीडियो ने  उस राजनीतिक पार्टी को बड़ा झटका दे दिया क्यू की यह वीडियो हर शोशल मीडिया पर वायरल हुई ! उस राजनीतिक पार्टी की हवा हवा हो गयी ओर उसने सहारा लिया बिकाऊ इलेक्ट्रोनिक मीडिया का की वह आचार्य सूर्यसागर चुप बेठ जाये ! मगर एक दिगंबर संत जो खुद नग्न रहता है ! 3 दिन मे एक बार आहार (खाना ) ओर एक बार पानी पीने वाले संत को जिसे सांसारिक जीवन से कोई मोह नही उन्हे क्या फर्क पड़ने वाला यह तो बिकाऊ मीडिया जैन समाज के इस महत्वपूर्ण पर्व पर विशेष रूप से हाइलाइट होने को या या चंद राजनीतिक नेताओ द्वारा डाले हुए चंद रोटी के टुकड़े पर पलने की आदत पड़ी हुई है बाज नही आ सकते !             
कुछ दिन पहले मैंने एक कहानी पढ़ी थी ‘रस्सी का साँप ‘जिसमे एक दरोगा जी अपने नाई के मजाक पर उसको अपराधी सिद्ध कर देते हैं और बाद में निर्दोष घोषित कर आर्थिक लाभ दिलवाते हैं।कुछ ऐसी ही दशा भारत की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की होती जा रही है।भारत में न्यूज़ चैनल रोज रस्सी का सांप बनाते हैं। किसी को नायक बना देते हैं और किसी को खलनायक । क्यू की मीडिया जानती है कुछ संत अभी अभी बड़े सेक्स स्केण्डल मे पकड़े गए है जनता इन पर भी विश्वाश कर लेगी ! आचार्य सूर्यसागर जी को पिस्तोल हाथ मे लेकर बताया गया ओर न जाने क्या क्या आरोप लगाए आज की इलेक्ट्रोनिक मीडिया समय के अनुसार अवसर भुनाने मे बड़ी माहिर है ! ओर आज यही किया आचार्य सूर्यसागर पर ! इन्ही आचार्य सूर्यसागर जी का मे साक्षात्कार मे आज तक चार बार ले चुका हु ! ओर मे श्वेतांबर संप्रदाय से होते हुए इनसे मिलने के बाद इतना प्रभावित हुआ की  मेरी हर गलतफेमी दूर हो गयी ! मे फिर भी जल्दी ही आचार्य सूर्यसागर जी पर लगे आक्षेप पर जल्दी ही फेसबूक व यू ट्यूब पर एक लाइव साक्षातकार लूँगा जिनसे आपके सामने लाइव होगा ओर आप खुद भी सवाल जबाव कर सकेंगे !            मीडिया रिपोर्टर एक साधारण सी घटना को देशव्यापी आंदोलन बना सकते हैं। नेताओं के चरित्र प्रमाण पत्र जारी करने के एक मात्र अधिकृत केंद्र भी यही हैं। एक आतंकवादी को भी ये भोलाभाला मासूम सिद्ध करने की क्षमता भारत की मीडिया में है इसीलिए भारत में सभी राजनैतिक पार्टियां करोड़ो रुपये खर्च कर मीडिया प्रबंधन कर रही हैं। ओर एक जैन संत पर लगाए यह आरोप मे आपके सामने निष्पक्षता से लाइव बताऊंगा चंददिन इंतजार करे ! 
लेखक - उत्तम विद्रोही