Tuesday 25 April 2017

पुस्तकों से पाठको की बढ़ती दूरी एक चिंताजंक समस्या

आज सूचना तकनीक ने भले ज्ञान के क्षेत्र में क्रांति ला दी है, पर पुस्तकें आज भी विचारों के आदान-प्रदान का सबसे सशक्त माध्यम हैं। आम आदमी के विकास के लिए जरूरी शिक्षा और साक्षरता का एकमात्र साधन किताबें हैं। यह सच है कि सूचनाओं के प्रसार में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मुद्रण माध्यमों पर भारी पड़ रहा है। पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी कोने में कंप्यूटर या टीवी स्क्रीन पर सूचनाओं को पहुंचाया जा सकता है। मगर इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि किताबें सर्वाधिक संयमित माध्यम हैं। वे पाठक को उनकी क्षमता के अनुरूप ज्ञान का आकलन करने और जानकारियों का गहराई से विश्लेषण और समालोचना का मौका प्रदान करती हैं। संचार माध्यम बदलते हुए विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली अस्त्र बनते जा रहे हैं। पिछले दो दशक में सूचना तंत्र अत्यधिक सशक्त हुआ है, उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं, लेकिन पुस्तक का महत्त्व इस विस्तार के बावजूद अक्षुण्ण है। यही नहीं, कई स्थानों पर तो पुस्तक व्यवसाय में काफी प्रगति हुई है। भले क्षणिक सूचना या शैक्षिक उद्देश्य से इंटरनेट का सहारा लेने वाले लोग बढ़े हों, लेकिन विभिन्न व्यापारिक वेबसाइटों से पुस्तकें खरीदने वालों की संख्या भी बढ़ी है। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि पुस्तक मेलों या प्रदर्शनियों की संख्या कम हुई या वहां भीड़ कम हुई है। विकासमान समाज पर आधुनिक तकनीक का गहरा असर हो रहा है। इनसे जहां भौतिक जीवन आसान हुआ है, वहीं पर निर्भरता भी बढ़ी है। इससे हमारे जीवन का मौलिक सौंदर्य प्रभावित हो रहा है। रचनात्मकता पिछड़ और असहिष्णुता उपज रही है। ऐसे में पुस्तकें आर्थिक प्रगति और सांस्कृतिक मूल्यों के बीच संतुलन बिठाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
भारत में महंगाई, प्रतिकूल सांस्कृतिक-सामाजिक-बौद्धिक परिस्थितियों के बावजूद पुस्तक प्रकाशन एक क्रांतिकारी दौर से गुजर रहा है। छपाई की गुणवत्ता में परिवर्तन के साथ-साथ विषय में विविधता आई है। विश्व में भारत ही शायद एकमात्र ऐसा देश है, जहां चौबीस भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित होती हैं।
इसके बावजूद आज भी आम घरों में किताबें घर या बच्चों के लिए ‘आवश्यक’ की सूची में नहीं आ पाई हैं। इसके दो पहलू हैं- एक तो पुस्तक साबुन-तेल की तरह उपभोक्ता वस्तु नहीं है और न ही उसका इस तरह प्रचार होता है। दूसरा, आम पाठक के लिए पुस्तक महज उसकी जरूरत पर याद आने वाली वस्तु है। इसका एक विपरीत असर भी हुआ है- खासकर हिंदी और कई भारतीय भाषाओं में पुस्तकों की विशाल संख्या में ‘स्वांत: सुखाय’ वाला हिस्सा ज्यादा बड़ा हो गया है। कई वरिष्ठ और नवोदित लेखक अपना पैसा लगा कर एक हजार किताबें छपवाते हैं। फिर यार-दोस्तों की चिरौरी कर अखबार-पत्रिकाओं में उनकी समीक्षा प्रकाशित कराते हैं। जुगत से कुछ सरकारी खरीद कराने या फिर सरकार पोषित पुरस्कार जुटाने तक सिमट कर रह गई है पुस्तकों की दुनिया। फिर सब यही रोना रोते रहते हैं कि पुस्तकें बिकती नहीं हैं। कई लोगों के लिए तो पुस्तकें आयकर बचाने और काला धन सफेद करने का औजार हैं।
यह भी एक चिंता की बात है कि देश के बड़े हिस्से में बच्चों के लिए किताब का अर्थ पाठ्यपुस्तक से अधिक नहीं है। वहां न तो पुस्तकालय हैं और न पाठ्येतर पुस्तकों की दुकानें। यदा-कदा जब वहां तक कुछ पठनीय पहुंचता है, तो खरीदा भी जाता है और पढ़ा भी।
यह देश के आम मध्यवर्ग की मानसिकता है। बच्चों के मानसिक विकास की समस्याओं को आज भी गंभीरता से नहीं आंका जा रहा है। मध्यवर्ग अपने बच्चों की शिक्षा और मानसिक विकास के लिए अँग्रेजी स्कूल में पढ़ाई और अच्छा खाने-खिलाने से आगे नहीं सोच रहा है। यही कारण है कि ‘अपने प्रिय को उपहार में पुस्तकें दें’ नारा व्यावहारिक नहीं बन पाया है। इन दिनों दुनिया का व्यापारिक जगत भारत में अपना बाजार तलाशने में लगा हुआ है। दैनिक उपभोग की एक चीज बिकते देख दर्जनों कंपनियां वही उत्पाद बनाने-बेचने लग जाती हैं। होड़ इतनी कि ग्राहकों को रिझाने के लिए छूट, ईनाम, फ्री सर्विस की झड़ी लग जाती है। आम आदमी की खरीद क्षमता बढ़ रही है। पैसे के बहाव के इस दौर में भी किताबें दीन-हीन-सी हैं। इतनी निरीह कि हिंदी प्रकाशक को अपनी पहचान का संकट सता रहा है।
किताबों की लोकप्रियता में कई बातें आड़े आ रही हैं- प्रकाशकों में अच्छी पुस्तकें छापने और उन्हें बेचने की इच्छाशक्ति का अभाव, पढ़े-लिखे समाज का किताबों की अनिवार्यता को न समझना और बाजार की अनुपस्थिति। यह कड़वा सच है कि प्रकाशक किताबों के लिए डीलर, विक्रेता तलाशने के बजाय एक जगह कमीशन देकर ‘सरस्वती’ का सौदा करना अधिक सहूलियत समझते हैं। आखिर यह क्यों नहीं सोचा जाता कि लोकप्रिय कहे जाने वाले साहित्य की लाखों में बिक्री का एकमात्र कारण यह है कि वह हर गांव-कस्बे के छोटे-बड़े स्टॉलों पर बिकता है। तथाकथित दोयम दर्जे का साहित्य प्रकाशित करने वाला प्रकाशक जब इतनी दूर तक अपना नेटवर्क फैला लेता है, तो सात्विक साहित्य क्यों नहीं? हमारे देश की तीन-चौथाई आबादी गांवों में रहती है और दैनिक उपभोग का सामान बनाने वाली कंपनियां अपने उत्पाद का नया बाजार वहां खंगाल रही हैं। दुर्भाग्य है कि किताबों को वहां तक पहुंचाने की किसी ठोस कार्य-योजना का दूर-दूर तक अता-पता नहीं है। गांव की जनता भले कम पढ़ी-लिखी है, मगर वह सुसंस्कृत है। वह सदियों से दुख-सुख झेलती आ रही है। इसके बावजूद वह तीस-चालीस रुपए की रामायण वीपीपी से मंगवा कर सुख महसूस करती है। आजादी के इतने साल बाद भी गांव वालों की रुचि परिष्कृत कर सकने वाली किताबें प्रकाशित नहीं हो सकीं। कुल मिला कर पुस्तकों को पाठकों तक पहुंचाने के लिए लेखक, प्रकाशक और वितरकों की सक्रियता जरूरी है।
लेखक - उत्तम जैन
संपादक - विद्रोही आवाज़


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